पूर्वज-गण: कहा कि 'बाबू साहब, इस समस्या की पूर्ति आप कोजिए, किसी कवि से न हो सकी ।' इन्होंने तुरन्त लिखकर इस प्रकार सुना दी कि मानो वह उन्हें पहिले ही से याद थी । दरबार के उपस्थित कवियों में से किसी ने ईर्ष्या से कह दिया कि पुराना 'कवित्त बाबू साहब को याद रहा होगा।' यह सुन कर भारतेन्दु जी को क्रोध हो आया और उन्होंने दस बारह कवित्त उसी समस्या पर बराबर बनाकर सुनाने और बार बार पूछने लगे कि 'क्यों कवि जी, यह भी पुराना है न ?' अंत में महाराज के बहुत कहने से रुके। इन्हीं गुणों से महाराज इन पर अत्यधिक स्नेह रखते थे। महाराज को सोमवार धातवार था इसलिए उस दिन वे किसी से नहीं मिलते थे। एक बार दरबार में उपस्थित न होने का यही कारण भारतेन्दु जी ने भी लिख भेजा जिस पर काशिराज ने जो दोहा उत्तर में लिख भेजा था उसके प्रति अक्षर स्नेह स्निग्ध थे- हरिश्चन्द्र को चंद्र दिन तहाँ कहा अटकाव । श्रावन को नहिं मन रह्यो इहै बहाना भाव ।। पंडित अम्बिकादत्त व्यास लिखते हैं कि “इस समय एक दाक्षिणात्य काले से मोटे तैलंग अष्टावधान काशी में आए थे। उनका अष्टावधान- कौशल भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र जी की कोठी में हुआ था...... ग्रीष्मकाल था । बाबू साहब की कोठी पर चाँदनी में हम लोग बैठे...थे। दोनों भाई बा० हरिश्चन्द्र और गोकुलचन्द्र थे। काशी के और भी कई पंडित थे। उन ब्राह्मण ने अति रम- णीयता से अष्टावधान दिखलाया। समाप्त होने पर बा० हरिश्चन्द्र ने उन्हें साधुवाद दिया । एक कवि ने कहा कि 'चन्द्र-सूर्य साथ ही उगे।' इस तात्पर्य की पूर्ति अष्टावधान जी मन्दाक्रान्त में और बाबू साहब कवित्त में साथ ही करें। बस दोनों काव्य वीरों की लेखनी दौड़ पड़ी और सद्यः साथ ही वह श्लोक और यह कवित्त -
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