भारतेंदु हरिश्चन्द्र सम्पन्न हुए । श्लोक का भावार्थ तो मैं भूल गया परन्तु बाबू सिाहब के कवित्त में खण्डिता की उक्ति में नायिका के मुख पर उत्प्रेक्षा थी...फिर बाबू हरिश्चन्द्र ने अपनी रचित हिन्दी में बहुत सी कविता पढ़ी और मुझसे मेरी पढ़वाई, तथा मुझे सुकविपद सहित प्रशंसा पत्र दिया ।" भारतमार्तड श्री गट्ठलाला जी स्वयं विख्यात आशु कवि थे पर वे भी भारतेन्दु की समस्या पति तथा आशुकवित्व पर मुग्ध हो गए थे । श्रीकुन्दनलाल जी शाह अच्छे भक्त तथा सुकवि थे। इनके भाई श्री साह फुन्दनलाल जी भी वैसे ही भक्त तथा सुकवि थे। ये दोनों सज्जन कविता में अपना उपनाम क्रमशः ललित किशोरी और ललित माधुरी रखते थे। इनमें से प्रथम से भारतेन्दु जी की घनिष्ठता थी और प्राय: वे लोग एक दूसरे को समस्या दिया करते थे और पूतियाँ भी किया करते थे। हरिश्चन्द्र मेग- जीन की सं०७-८ में एक समस्या 'कान्ह कान्ह गोहरावति है' जिस पर भारतेन्दु जी की पन्द्रह तथा शाह जी की बारह सवैयाएँ पढ़ने योग्य हैं । काशीराज के पौत्र के यज्ञोपवीतोत्सव के समय 'यज्ञोपवीतं परमं पवित्र' पर कई श्लोक तत्काल ही बना कर पढ़े थे। उनमें से एक श्लोक यहाँ उद्धृत कर दिया जाता है- यद्वत् वटोमिनवेषविष्णो: रामस्य जातं यदुनंदनस्य । तद्वत् कृतं काशिनरेश्वरेण यज्ञोपवीतं परम पवित्रम् ।। सं० १९२४ पौष शुद्ध १५ (फि० १ बं०५) के कविवचन सुधा में श्री ताराचरण तर्क रत्न, कामाक्षा बनारस ने निम्नलिखित समस्यापूर्तियाँ छपवाई हैं, जब भारतेन्दु जी केवल अठारह वर्ष 7 के थे। "आज मैं बाबू हरिश्चन्द्र से मुलाकात करने गया था जहाँ बाबू साहब ने मुझे यह समस्या दिया ( राधामयाराध्यते ) उस पर मैंने यह श्लोक बनाया-
पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/११५
दिखावट