पूर्वज-गण १०५ श्रुत्वा वेणुरवनिकुजभवने जाता निशीथेऽबला । नो दृष्ट्वा प्रियकृष्णवक्त्रकमलं मुग्धा भ्रमन्ती मुहुः ।। पश्चाच्छन्नतमम्बिलोक्य दयितं शान्तास्ततस्संस्थिता । नाथेनस्मितचुम्बितास्मितमुखी राधा मयाराध्यते ।। यद्यपि यह श्लोक मेरे चित्त का नहीं बना तथापि बाबू साहब बहुत प्रसन्न भये और कहा कि मुझे भी कोई समस्या दीजिए तब मैंने समस्या दिया । 'तू वृथा मन क्यों अभिलाषा करें और 'जिन कामिनी के नहिं नैनन हारे।' इस पर पूर्व स्तुत बाबू साहब ने ये कवित्त बनाए जो कविवचन-सुधा के रसिकों को आनंद देने के वास्ते लिखे जाते हैं। जब ते बिछुरे नदनंदन जू तब तें हिय में बिरहागि जरै । दुख भारी बढ्यौ सो कहौं केहि सों ‘हरिश्चंद' को प्राइकै दुःख हरै।। वह द्वारिका जाइ कै राज करैं हमैं पूछिहैं क्यों यह सोच परै । मिलिबो उनको कछु खेल नहीं तू वृथा मन क्यों अभिलाष करै।। वेई कहैं अति सुन्दर पंकज, वेई कहैं मृगनैन बड़ा रे । वेई कहैं अति चंचल खंजन, वेई कहैं अति मीन सुधारे ।। वेई कहैं अति बान को तीछन, वेई कहैं ठगिया बटवारे । वेई कहैं धनु काम लिए जिन कामिनी के नहिं नैननि हारे । अंधेर नगरी, प्रहसन एक ही दिन में लिखी गई थी। 'विज. यिनी विजय वैजयंती' सभा होने वाले दिन ही को कुछ ही देर में लिख डाली गई थी। बलिया का लेक्चर तथा हिन्दी का व्याख्यान ( पद्यमय ) एक एक दिन में लिखे गए थे। इस प्रकार देखा जाता है कि कविता करने तथा ग्रंथ र बना दोनों ही में इनकी गति अतिद्रुत थी।
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