. भारतेंदु हरिश्चन्द्र पाठकों के विनोदार्थ यहाँ इनकी आदि कविताएँ उद्धृत की जाती हैं। सबसे पहिला दोहा-'ले ब्योडा ठाढ़े भए' इत्यादि है और जिसका उल्लेख हो चुका है। सबसे पहिली सवैया- "यह सावन सोक नसावन है, मन भावन यामैं न लाजै भरो। जमुना पै चलौ सु सबै मिलि के, अरु गाइ बजाइ के सोक हरो।। इमि भाषत हैं हरिचन्द पिया, अहो लाडिली देर न यामें करो। बलि झूलो झुलाश्रो झुको उमको, एहि पाय पतिव्रत ताबै धरो॥ पहिला पद यों है- "हम तो मोल लिए या घर के । दास दास श्री बल्लभ कुल के चाकर राधा बर के ।। माता श्रीराधिका पिता हरि बन्धु दास गुनकर के हरीचंद तुमरे ही कहावत, नहिं बिधि के नहिं हर के॥" इनकी बनाई सबसे पहिले ठुमरी यह है- "पछितात गुजरिया घर में खरी। अब लग श्यामसुन्दर नहिं आए दुख दाइन भइ रात अँधरिया। बैठत उठत सेज पर भामिनि पिया बिना मोरी सूनी सेजरिया ॥ ऐसी कवित्व शक्ति होने ही के कारण वे अपनी रचना में दूसरों के भाव नहीं लेते थे। एक बार इन्होंने एक कवित्त बनाया जिसके भावों के विषय में उनका विचार यह था कि ये नए भाव हैं; परन्तु मैंने इन्हीं भावों का एक कवित्त ( आपने पितृव्य बा० पुरुषोत्तमदास जी के ) एक प्राचीन संग्रह में देखा था, उसे दिखाया; इन्होंने तुरंत उस अपने कवित्त को ( यद्यपि उसमें प्राचीन कवित्त से कई भाव अधिक थे) फाड़ डाला और कहा 'कभी कभी दो हृदय एक हो जाता है। मैंने इस कवित्त को कभी नहीं देखा था, परन्तु इस कवि के हृदय से इस समय मेरा हृदय
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