पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/११८

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9 पूर्वज-गण १०७ मिल गया, अत: अब इस कवित्त के रहने की कोई आवश्यकता नहीं।" वह प्राचीन कवित्त यह था- जैसी तेरी कटि है तू तैसी मान करि प्यारी जैसी गति तैसी मति हिय ते विसारिये। जैसी तेरी भौंह तैसे पन्थ पै न दीजै पाँव , जैसे नैन तैसिए बड़ाई उर धारिए ।। जैसे तेरे ओंठ तैसे बैन नैन कीजिए-न जैसे , कुच तैसे बैन मुख ते न उचारिए। एरी पिक बैनी ! सुनु प्यारे मन मोहन सों , जैसी तेरी बेनी तैसी प्रीति बिसतारिए । समाज सुधार भारतेन्दुजी हिन्दू समाज के अंतर्गत अग्रवाल वैश्य जाति के थे और इनका धर्म श्री बल्लभीय वैष्णव संप्रदाय था। पुराने विचारों की जड़ अंग्रेजी साम्राज्य के जम जाने यथा यूरोपीय सभ्यता के फैलने से वहाँ की विचार धारा के संघर्षण से हिल चली थी । पुराने तथा नवीन विचार वाले दोनों पक्ष अपने अपने हठपर अड़े थे। एक पक्ष दूसरे को नास्तिक, क्रिस्तान, भ्रष्ट, कह रहे थे। तो दूसरे उन्हें 'कूपमंडूप अंधविश्वासी, आदि की पदवी दे रहे थे। दोनों ही पक्षवाले इससे अपने पक्ष समर्थन होने की आशा कर रहे थे पर वे सत्य के सच्चे भक्त थे और जो कुछ उन्होंने देश तथा समाज के लिये उचित समझा उसे नि:संकोच होकर कह डाला। यह वर्णव्यवस्था मानते थे और वैष्णव धर्म के पक्के अनुगामी थे। साथ ही वे समाज के दोषों का निराक- रण भी उचित समझते थे। वे कहते हैं कि 'सब उन्नतियों का मूल धर्म हैं.....ये सब तो समाज धर्म हैं जो देश काल के अनुसार शोधे और बदले जा सकते हैं.. .बहुत सी बातें जो