पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/११९

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"१०८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र समाज विरुद्ध मानी हैं किन्तु धर्म शास्त्रों में जिनका विधान है उनको चलाइए, जैसे जहाज का सफर, विधवा विवाह आदि । लड़कों को छोटेपन ही में व्याह कर उनका बल वीर्य आयुष्य सब मत घटाइए ।......कुलीन प्रथा बहु विवाह आदि को कीजिए । लड़कियों को भी पढ़ाइए ।. सब लोग आपस में मिलिए ।' यह उनकी प्रौढ़ावस्था का उपदेश है। स्त्री शिक्षा के संबंध में यह उद्योग भी बराबर करते थे। मिस मेरी कारपेंटर के इस उद्योग में यह प्रधान सहायक थे। बंगाल, बंबई तथा मंदराज विश्वविद्यालयों की परीक्षोत्तीर्ण विद्यार्थिनियों के लिये बनारसी साड़ियाँ श्रादि पुरस्कार भेजकर उन्हें उत्साहित करते थे। वे ईसाई चाल पर दी जाने वाली शिक्षा के विरोधी थे। उनका कथन था कि 'ऐसी चाल से उन्हें शिक्षा दीजिए कि वह अपना देश और कुलधर्म सीखें, पति की भक्ति करें और लड़कों को सहज में शिक्षा दें। 'इन्होंने स्वयं अपनी लड़की को अच्छी शिक्षा दी थी, जो बाल्यकाल में सदा अस्वस्थ रहती थी। यह श्रीमद्भागवत आदि का पाठ सुगमतापूर्वक कर लेती थी और निज का अच्छा छोटा सा पुस्तकालय था। बंगला भी जानती थीं। बा० राधाकृष्ण दास जी ने स्वर्णलता का अनुवाद पूर्ण होने पर उसकी एक प्रति इन्हें भी उपहार में दी थी और इनकी सम्मति पूछी थी। दूसरे दिन इन्होंने जो सम्मति दी उसका मतलब यह था कि अनुवाद उत्तम हुआ है पर सुखांत कर देने से इसका प्रभाव कुछ कम हो गया है । सन् १९८० ई० के मई में इन्हीं के विवाह के अवसर पर भारतेन्दु जी ने स्त्रियों के अश्लील गाने को बंद कर दिया था। अग्रवाल विरादरी में पत्तले पहिले परस जाने के बाद भाइयों को भोजन के लिए बैठाने की प्रथा इन्हीं ने निकाली। गाली गाना बंद करने पर अनेक सज्जनों ने इन्हें धन्यवाद दिया था। रामलीला पुस्तक में ऐसे अवसर पर