पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१२०

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पूर्वज-गण १०६ गाने योग दो एक पद इन्होंने दिए हैं। विलायत-यात्रा पर आप की सम्मति थी कि- रोकि विलायत-गमन कूपमंडूक बनायो । औरन को संसर्ग छोड़ाइ प्रचार घटायो ।। समय के प्रभाव से जिन लोगों का संसर्ग आवश्यक हो गया है उन लोगों के देश समाज आदि का ज्ञान प्राप्त करना भी आवश्यक है। ईश्वर की सष्टि के एक से एक उन्नत देश तथा जाति से मिलकर उनके गुण आदि लेते हुए अपनी उन्नति न करना अपनी ही हानि है, इसीसे उन देशों के पर्यटन में धार्मिक या सामाजिक बंधन डालना भी हानिकारक है। बहु देवी देवतान भूत प्रेतादि पुजाई । ईश्वर सों सब विमुख किए हिन्दुन घबराई।। क्यों न हो, हिन्दू-समाज तैंतीस करोड़ देवताओं से भी नहीं अघाया है, कबर,गाजीमियाँ, भूत-प्रेत आदि भी पूजता है । खसम जो पूजै देहरा, भूत पूजनी जोय । ५कै घर में दो मता, कुशल कहाँ ते होय ।। हिंदुओं के आपस की फूट,द्वेष, आलस्य, अहम्मन्यता, मुकद्दमेबाज़ी आदि सब पर इन्होंने अपने लेखों में कुछ कुछ आक्षेप विनोद लिए हुए किया है। देश-सेवा मातृभाषा भक्त भारतेन्दु जी के हृदय में देश सेवा करने का उत्साह कम नहीं था और उन्होंने प्रायः साथ ही दोनों कार्य में हाथ लगा दिया था। जगन्नाथपुरी से लौटने पर देशोपकारक बाबू हरिश्चन्द्र ने पाश्चात्य शिक्षा का अभाव तथा उसकी आवश्यकता