पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१२१

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११० भारतेंदु हरिश्चन्द्र देखकर अपने गृह पर ही एक अंग्रेजी तथा हिन्दी की पाठशाला खोली । यद्यपि कुछ सरकारी तथा मिशन स्कूल खुल चुके थे पर उनमें जन-साधारण अपने अपने बालकों को अनेक विचारों से तथा फीस आदि देने में असमर्थ होने से नहीं भेज सकते थे। इस स्कूल में आरंभ में केवल पाँच ही बालक थे। इन लोगों को ये स्वयं तथा बा० गोकुलचन्द्रजी पढ़ाते थे पर जब क्रमशः विद्या- र्थियों को संख्या तीस हो गई तब इन्होंने अध्यापन कार्य के लिये एक वैतनिक सज्जन को नियुक्त कर दिया। जब यह कुछ और बड़े हुए और विद्यार्थियों की संख्या बहुत बढ़ी सन् १८६७ ई० में इन्होंने चौखंभा में वेणीप्रसाद के गृह में एक स्कूल स्थापित कर दिया और कई अध्यापक नियुक्त कर दिए। इसमें आधे से अधिक लड़के बिना फीस दिए पढ़ते थे और उन्हें पुस्तक, लेखनी आदि भी बिना मूल्य दी जाती थी। कुछ निराश्रय बालकों को वस्त्र भोजन भी मिलता था इस पाठशाला का पहिला नाम 'चौखंभा स्कूल था और इसका कुल व्यय भारतेन्दु जी स्वयं चलाते थे सन् १८७० ई० में इसके एक अध्यापक एक काश्मीरी ब्राह्मण विश्वेश्वरप्रसाद, भारतेन्दु जी की प्राज्ञा भंग करने के कारण निकाल दिए गये। उसने भारतेन्दु जी से वैमनस्य ठान लिया और जिसके घर में स्कूल था उसने भी उसी का साथ दिया, जिससे भारतेन्दु जी ने स्कूल पुनः अपने घर उठवा लिया । पंडित जी ने वेणीप्रसाद के पुत्र के सहयोग से ईर्ष्यावश अपना एक स्कूल खोला और चौखंभा स्कूल के सब लड़कों को धमका कर अपने यहाँ बुलाने लगे। यहाँ तक कि कुछ लोगों के साथ बाबू साहब के गृह के फाटक के सामने खड़े होकर भीतर किसी लड़के को न जाने देते थे। इस दंगा-फसाद से जब कुछ न हुआ और प्रायः डेढ़ सौ विद्यार्थी चौखंभा स्कूल में आने लगे त