पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१२३

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११२ भारतेंदु हरिश्चन्द्र बचन सुधा, हरिश्चन्द्र मैगजीन तथा हरिश्चन्द्र चन्द्रिका, बाला- बोधिनी आदि पत्रिका पत्र स्वयं अपने व्यय से निकाला और दूसरों को सहायता देकर अनेक पत्र प्रकाशित कराए। इन पत्रों से इन्हें बराबर धन की हानि पहुँचती रही । हिन्दी में पुस्तकों का अभाव देखकर समयानुकूल पुस्तकों की रचना प्रारंभ की और हिन्दुओं में हिंदी के प्रति प्रेम कम देखकर उन्हें स्वयं प्रकाशित कर बिना मूल्य वितरण करना प्रारम्भ कर दिया। अन्य लोगों को हिंदी ग्रंथ रचना का उत्साह दिला कर बहुत सी पुस्तकें प्रकाशित कराईं। अनेक प्राचीन काव्यग्रंथ भी छाप कर बाँटे गये।' 'वास्तव में हरिश्चन्द्र सरीखा उदार हृदय, रुपये को मिट्टी समझने वाला गुण-ग्राही नायक हिन्दी की पतवार को उस समय न पकड़ता और सब प्रकार से स्वार्य छोड़कर तन मन धन से इसकी उन्नति में न लग जाता तो आज दिन हिन्दी का इस अवस्था पर पहुँचना कठिन था। हरिश्चन्द्र ने हिन्दी तथा देश के लिए सारे संसार की दृष्टि में अपने को मिट्टी कर दिया।" जी नहीं जनाब, सिर्फ 'घर के शुभचिंतकों, की दृष्टि में मिट्टी किया था। संसार तो जो उन्हें पहिले मानता था, वही या उससे अधिक अब भी मानता है। सं० १६२७ में भारतेन्दु जी ने कविता-वर्द्धिनी-सभा स्थापित की जो इनके घर पर या रामकटोरा बाग में हुआ करती थी। सरदार, सेवक, दीनदयाल गिरि, मन्ना लाल 'द्विज' दुर्गादत्त गौड़ 'दत्त' नारायण, हनुमान आदि अनेक प्रतिष्ठित कवि गण उस सभा में आते थे । व्यास गणेशराम को इसी सभा ने प्रशंसा पत्र दिया था । साहित्याचार्य पं० अम्बिकादत्त व्यास को सुकवि की पदवी तथा प्रशंसा-पत्र इसी में दिया गया था। कवि समाज भी होता रहता था और मुशायरा भी। एक बार