पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१४५

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१३४ भारतेंदु हरिश्चन्द्र प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया और वह इनके नाम से भी अधिक प्रसिद्ध हो उठा। 'भारतेन्दु' की पदवी पं० सुधाकर जी द्विवेदी अपनी राम कहानी की भूमिका में लिखते हैं कि “यह मेरे सामने की बात है कि लाहौर के जल्ला पंडित के वंश के पंडित रघुनाथ जंबू के महाराज श्री रणवीर सिंह की नाराजी से जंबू छोड़कर बनारस चले आये थे। उनसे और बाबू हरिश्चचन्द्र जी से बहुत मेल था। बनारस के अति प्रसिद्ध विद्वान पंडित बाल शास्त्री ने जब अपनी व्यवस्था से कायस्थों को क्षत्री बनाया, उस समय बाबू साहब ने अपनी मेगजीन में जाति गोपाल की, इस सिरनामे से काशी के पंडितों की बड़ी धूर उड़ाई । इस पर पंडित रघुनाथ जी बहुत नाराज होकर बाबू साहब से बोले कि "आपको कुछ ध्यान नहीं रहता कि कौन आदमी कैसा है, सभी का अपमान किया करते हो। जैसे आप अपने सुयश से जाहिर हो उसी तरह भोगविलास और बड़ों के सम्मान करने से आप कलंकी भी हो, इसलिये आज से मैं आप को भारतेन्दु नाम से पुकारा करूँगा।" उस समय मैं और भरतपुर के राव श्रीकृष्ण देवशरण सिंह मौजूद थे। हम लोग भी हँसी से कहने लगे कि बस बाबू साहब सचमुच भारतेन्दु हैं। बाबू साहब ने भी हँसकर कहा कि 'मैं नाराज़ नहीं हूँ आप लोग खुशी से मुझे भारतेन्दु कहिए।' मैंने कहा कि "पूरे चाँद में कलंक देख पड़ता है, आप दूइज के चाँद हैं जिसके दर्शन से लोग पुण्य समझते हैं ।" यह मेरी बात सब के मन में खुशी के साथ समा गई। धीरे धीरे इनकी पोथियों पर दूइज के चाँद की सूरत छपने लगी। इस तरह अब आज इज्ज़त के साथ बाबू साहब भारतेन्दु कहे जाते हैं।"