पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१४८

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१३८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र है और जगत से विपरीत गति चल के तूने प्रेम की टकसाल खड़ी की है। क्या हुआ जो निर्दय ईश्वर तुझे प्रत्यक्ष आकर अपने अंक में रखकर आदर नहीं देता और खल लोग तेरी नित्य एक नई निंदा करते हैं और तू संसारी वैभव से सूचित नहीं है; तुझे इससे क्या, प्रेमी लोग जो तेरे और तू जिन्हें सरबस है वे जब जहाँ उत्पन्न होंगे तेरे नाम को आदर से लेंगे और तेरी रहन- सहन को अपनी जीवन पद्धति समझेगे । (नेत्रों से आँसू गिरते हैं) मित्र, तुम तो दूसरों का अपकार और अपना उपकार दोनों भूल जाते हो; तुम्हें इनकी निंदा से क्या ? इतना चित्त क्यों क्षुब्ध करते हो ? स्मरण रक्खो ये कीड़े ऐसे ही रहेंगे और तुम लोक- वहिष्कृत होकर भी इनके सिर पर पैर रख के विहार करोगे । क्या तुम अपना वह कवित्त भूल गए–'कहेंगे सबै ही नैन नीर भरि-भरि पाछे प्यारे हरिचंद की कहानी रहि जायगी।' मित्र मैं जानता हूँ कि तुम पर सब आरोप व्यर्थ हैं। हा ! बड़ा विपरीत समय है।" ऐसे प्रसन्न चित्त विनोद-प्रिय कवि-हृदय में यह आत्मक्षोभ अधिक नहीं टिका । पर इसका असर उस पर अवश्य बना रहा । वे परमाशा रूपी ईश्वर-प्रेम की ओर झुक पड़े और दूसरे ही वर्ष लिखे गये चंद्रावली नाटिका की भूमिका में इनका आत्माभिमान तथा इनकी कृष्ण-प्रति अनन्य भक्ति यों उमड़ पड़ी है। परम प्रेमनिधि रसिक बर , अति उदार गुन-खान । जग-जन-रंजन आशु कवि , को हरिचंद समान ।। जिन गिरिधर दास कवि , रचे ग्रन्थ चालीस। ता सुत श्री हरिचंद को , को न नवावै सीस ।। जग जिन तन-सम करि तज्यो, अपने प्रेम प्रभाव । करि गुलाब सों आचमन , लीजत वाको नाँव।। ,