पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७१

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मित्रगण १६१ (प्रेमघन ) जी भी भारतेन्दु जी के अंतरंग मित्रों में से थे । इस मित्रता का आरम्भ सं० १९२६ वि० में हुआ था और इसका अंत तक पूरा निर्वाह भी हुआ । यह पहिले उर्दू के प्रेमी तथा लेखक थे पर भारतेन्दु जी से परिचय होने पर यह भी मातृभाषा के अनन्य उपासक हो उठे। इनके लेख कविवचन-सुधा में छपने लगे। इन्होंने स्वयं आगे चलकर आनंदकादंबिनी मासिक पत्र तथा नागरीनीरद नामक (साप्ताहिक) प्रकाशित किया। प्रथम में यह प्रायः अपने ही सब लेख दिया करते थे, जिस पर एक बार भारतेन्दु जी ने इनसे कहा भी था कि 'जनाब, यह किताब नहीं है कि जो आप अकेले ही इरकाम फर्माया करते हैं बल्कि अखबार है कि जिसमें अनेक जन लिखित लेख होना आवश्यक है और यह भी ज़रूरत नहीं है कि सब एक तरह के लिक्खाड़ हों।'प्रेमघनजी अपने लेखों में लंबे लंबे वाक्यों में पेचीले मजमून बाँधते थे, जिससे उन्हें अपने लेखों को कई बार दुहराना पड़ता था। भारतेन्दु जी स्वभावतः अपने लेख कभी दुहराते नहीं थे, जिससे प्रेमघन जी उनके इस 'उतावलेपन' पर बहुधा कहा करते थे कि 'बाबू हरिश्चन्द्र अपनी उमंग में जो कुछ लिख जाते थे, उसे यदि एक बार और देखकर परिमार्जित कर लिया करते तो वह और भो सुडौल तथा सुन्दर हो जाता।' इन्होंने भारत सौभाग्य नाटक, हार्दिक हर्षादर्श आदि कई पुस्तकें लिखी। समालोचना का इन्होंने एक प्रकार हिन्दी में आरम्भ कर बा. गदाधरसिंह की वंगविजेता तथा लाला श्री निवासदास के संयोगिता स्वयंवर नाटक की कठिन अलोचनाएँ लिखी थी। यह भी अभिनय करने में भारतेन्दु जी का साथ देते थे। पं० बालकृष्ण भट्ट जब कलकत्ते से लौट आए तब भारतेन्दु जी की पुस्तकें तथा कविवचन-सुधा पढ़ने से इनमें हिन्दी साहित्य ११