पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७२

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१६२ भारतेंदु हरिश्चन्द्र सेवा की लगन उत्पन्न हो गई। इन्होंने कविबचन सुधा, काशी पत्रिका और विहारबंधु में लेख देना प्रारम्भ किया। प्रयाग के कुछ विद्यार्थियों ने हिन्दी-वर्द्धिनी सभा स्थापित की। भारतेन्दु जी ने इसके मेंबरों के आग्रह से वहाँ जाकर एक व्याख्यान दिया और स्वयं उसके सभ्य हो गये। इसी सभा द्वारा निकाले गए एक प्रसिद्ध पत्र का आप ही ने 'हिन्दी प्रदीप' नामकरण किया और उसका शीर्ष पद (मौटो) भी स्वयं बना दिया था। उसके सहायतार्थ कविवचन-सुधा के ग्राहकों की नामावली भी भेज दी थी। भट्ट जी उस पत्र के संपादक थे और अपने को बा० हरिश्चन्द्र जी का अनुयायी कहते थे तथा उन्हीं की सी शुद्ध हिन्दी लिखने के प्रेमी थे । भारतेन्दु जी को भट्ट जी बहुत सन्मान की दृष्टि के देखते थे और वे भी कहा करते थे कि हमारे बाद दूसरा नंबर भट्ट जी का है। भट्ट जी प्रायः चालीस वर्ष तक हिन्दी की सेवा कर परमधाम को सिधारे थे। पं० प्रतापनरायण मिश्र कानपुर निवासी थे और इनमें हिन्दी प्रेमी भारतेन्दु जी की कत्रिवचन-सुधा के लेखों के पढ़ने से अंकुरित हुआ था। यह लेखन कला में भारतेन्दु जी को अपना आदर्श मानते थे और उन पर इनकी अपूर्व भक्ति थी। जबसे बाबू साहब ने इनकी प्रेम पुष्पावली की प्रशंसा कर इनका उत्साह वर्द्धन किया तबसे यह उन्हें बहुत मानने लगे। उस समय की यह इनकी प्रशंसा मिश्र जी के लिये सुकवि और सुलेखक होने की उच्चत्तम सर्टिफिकेट हो गई थी। यह भारतेन्दु जी का बहुत कुछ कीर्तन करते तथा उन्हें आराध्यदेव मानते और पूज्यपाद तक लिखते थे। उनकी मृत्यु पर शोकाश्रु' नामक कविता लिखी थी। भारतेन्दु जी को महात्माओं के बराबर विशेषण देने से इनसे कुछ लोग आज तक रंज मानते हैं।