पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७६

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१६६ भारतेंदु हरिश्चन्द्रः वहाँ से लौट कर वे ज्यों ही कपड़े उतार कर सोने को उद्यत हुए कि इनके पिता ने जगकर और इन्हें पलंग पर न देख कर पूछा कि 'लल्ला कितै गये।' यह तुरंत बोल उठे कि 'हम यहाँ बैठे हैं'। इस अभिसार की कथा स्वयं गोस्वामी जी कहते थे। सं० १६३२ वि० में इन्होंने कवि-कुल-कौमुदी नामक एक सभा स्थापित की थी। इनमें ब्राह्म-धर्म की ओर रुचि हो चली थी और वे उस धर्म के पक्ष में लेख भी लिखने लगे थे। परन्तु भारन्तेदु जी के पत्र द्वारा इस विषय पर कटाक्ष करने में यह उस धर्म की ओर से विमुख हो गए। यह भारतेन्दु जी को 'दिव्य भगवत्विभूति' मानते थे और साहित्य क्षेत्र में इन्हें अपना गुरु स्वीकार किया है। भारतेन्दु जी भी अपने पत्रों में इन्हें बड़े आदर से साष्टांग दंडवत प्रणाम आदि लिखते थे। एक पत्र का साहित्य का प्रकाश भी उसने हमें दिया है। उसके प्रवर्तक राजा राम- मोहन राय निस्सन्देह एक असाधारण पुरुष थे । हमें ब्राह्म-समाज घृणा न करनी चाहिए । इसी प्रकार आर्य समाज के द्वारा भी बहुत कुछ सामाजिक सुधार होने की हमें आशा है । आर्य समाज ही अप्रत्यक्ष-र तु-रीति से सनातन-धर्म की रक्षा करेगा।" "तब तो भारतेन्दु जी के बड़े उदार विचार थे।" "फिर भी वे एक अनन्य वैष्णव थे । बड़े ऊँचे भावुक और कृष्ण- भक्त थे।' यह कहते हुए गोस्वामीजी की आँखें डबडबा आई। "हरी जी, यह तो आप ने सुना ही होगा कि एक समय मैं पूरे तौर से ब्राह्म-समाज की ओर झुक गया था, भारतेन्दु जी ने ही मद्- विषयक व्यंग्य-पूर्ण पत्र छपा छपाकर मेरे ब्राह्म-समाज सम्बन्धी अन्ध विश्वासों में परिवर्तन कराया था। हरिश्चन्द्र हरिश्चन्द्र थे। उनके स्थान की पूर्ति करने वाला मुझे तो अब तक कोई दिखाई नहीं दिया ।" .