पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७८

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१६८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र दिन पं० दुढिराज शास्त्री घर्माधिकारी मेरे मित्र ने मुझे एक नौकरी का हाल कहा और दूसरे दिन काशी-रत्न हिन्दी के एक मात्र आश्रम भारतभूषण भारतेन्दु श्रीयुत बा० हरिश्चन्द्र के यहाँ मुझे ले गए और उनसे कहा । दुढिराज शास्त्री का यह वाक्य सुन प्रथम ही बाबू साहब ने मुझे कहा 'क्यों जी, हम जिधर झख मारते जायँगे उधर सदा आपको भी हमारे साथ रहना पड़ेगा।' इस प्रकार यह डेढ़ वर्ष तक इनके यहाँ नौकर रहे, इसी बीच इन्होंने दूसरा विवाह किरा । विवाह होने से व्यय बढ़ा, जिससे यह चिन्ता में रहते । 'बाबू साहिब भी ऐसी ही चिंता में रहने लगे।' अंततः विहार से एक स्कूल में पंडित होकर सन् १८७४ ई० में वहाँ गए । इसके अनंतर बिहारबंधु के संपादक हुए पर वहाँ जब नहीं पटी तब पुनः भारतेन्दु जी के यहाँ लौट आए। यहाँ से पुष्कर होते श्रीनाथ जी गए और कई वर्ष वहीं सुखपूर्वक व्यतीत किया। इन्होंने यात्रा खूब की थी और उस विषय की कई पुस्तकें भी लिखीं । विद्यार्थी पत्र भी संस्कृत में निकाला था जो बाद को मोहन चन्द्रिका में मिला लिया गया था। मैं वही हूँ नामक चौंसठ पृष्ठ की पुस्तक में इन्होंने अपना वृत्तांत लिखा है, जिसका एक उद्धरण ऊपर दिया गया है। इन्होंने मराठी तथा हिन्दी में भी कुछ पद लिखे हैं । इन्होंने लिखा है कि मुझे बहुत सा सांसारिक ज्ञान तथा अनुभव बाबू साहब के सत्संग ही से प्राप्त हुआ था। भारतेन्दु जी की सम्मति से इन्होंने काशी में एक नाटक मंडली खोली और कई नाटक तैयार किए थे। हरिश्चन्द्र मैगजीन में एक नोट इन्होंने लिखा है कि 'एक दिन पंजाब यूनिव- र्सिटी के अध्यापक श्री पं० गुरुप्रसाद जी शिवकुमार जी को लेकर आए और बड़ी प्रशंसा की कि यह काव्य बहुत शीघ्र करते हैं, यह सुनकर 'चंद्रावली चुम्बति' यह समस्या बाबू साहब ने दिया