पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१७९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

मित्रगण १६६ 'और पं० शिवकुमार जी ने नीचे लिखे श्लोक बनाए- चूतं वामलता निशा च शशिनं सिन्ध्वीश्वरं सिन्धुगाः। स्वर्णादि वसुधा गिरीश मधुना योगा हिताप्यम्बिका ।। आश्लिष्टेति विचिन्त्य पूर्व निखिलं सन्त्यज्य कान्तान्तरं । प्रोन्मजन्मदनात्मिहस्ति वहनी चन्द्रावली चुम्बति ।। श्रालोक्याद्य गृहे विभूषणचयैः सम्भूषिताङ्गीमिमां । कन्या दिव्यविभूतिगर्व दमिनी धातुः कृतेः ख्यायिनीम् ।। प्रेमूणा स्वागतां विधाय नितरां तृप्तिं नयान्तीचिरात् । कामम्प्राप्यमिषेण हीनपतिका चन्द्रावली चुम्बति ।। और श्री बाबू हरिश्चन्द्र ने भी झटपट उसी समय एक श्लोक बनाया, वह भी पाठकों के आनन्दार्थ नीचे लिखते हैं। चन्द्रालोकमये चतुष्पथचये गन्धावहे मारुते । चंचच्चालितचंचरीकनिचये प्रमोदोदये ॥ कूजत्कोकिल काकली कलकले कालिन्दिकाकूलके । कुजे केलि कलाऽकुलं प्रियतमं चन्द्रावली चुम्बति ।।' डाक्टर राजा राजेन्द्रलाल मित्र प्रसिद्ध पुरातत्ववेत्ता थे। यह पहिले बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के सहायक कार्याध्यक्ष तथा पुस्तकाध्यक्ष नियत हुए और वहीं से इनमें पुरातत्वानुसंधान अंकुरित होकर पूर्ण विकास को पहुँचा। यह सन् १८५८ ई० में वॉर्डसू इंस्टीट्यूट के डाइरेक्टर नियत हुए और उसके टूटने पर सन् १८८० ई० में इन्हें पेंशन मिली । इन्हें डी० एल०, सी. आइ. ई० तथा राजा की पदवियाँ मिर्ली। यह जब काशी आते थे तब बराबर भारतेन्दु जी से मिलते रहते थे। पहिली बार जब यह इनके यहाँ आए तब इन्होंने भारतेन्दु जी को दो तीन बार उठकर भीतर जाते और कपड़े बदल बदल कर आते देखा तो चारु