पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/१८७

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१७८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र भारतेन्दु जी के सत्संग से इनमें हिन्दी-प्रेम जागृत हुआ और उनकी रुचि के अनुकूल ही इनमें भी इतिहास, नाटक, साहित्य आदि के प्रति विशेष प्रेम होगया । 'बा०. हरिश्चन्द्र के सुयश-सौरभ के प्रसार का इनको बड़ा ध्यान रहता था। वास्तव में यदि ये उदय काल ही से वायु के समान चंचल होकर समय समय पर भ्रमरूपी मेघों को न छांटते रहते तो भारतेन्दु की शीतल किरनें बहुतेरे अंधकारमग्न हृदयों में न पहुँचतीं।' वही दशा अब आज कल कुछ-कुछ हो रही है। कुछ सज्जन स्वयं 'भारतेन्दु' बनने की इच्छा से अपने तिमिराच्छादित हृदय की कालिमा लगाकर इन्हें सकलंक करना चाहते हैं और कुछ अपनी कविता ही की प्रशंसा करने में इतने मग्न रहते हैं कि दूसरों के गुणों को स्वीकार करना दूर, उनपर आक्षेप करना ही उनका धर्म हो गया है । जो कुछ हो, भारतेन्दु जी की मृत्यु को पचास वर्ष होते आए पर अभी तक हिन्दी साहित्य का दसवाँ रत्न नहीं उत्पन्न हुआ है। दान की स्फुट वार्ता भारतेन्दु जी की बहिन श्रीमती मुकुन्दी बीबी अपने पति की मृत्यु पर उस वंश में किसी के न रहने के कारण अपने पितृ-गृह में चली आई थीं। इसके कुछ दिन अनन्तर एक भारी जायदाद ठठेरी बाजार का ठाकुरद्वारा श्री माधो जी के वश वालों ने क्रय किया था । इस क्रय-विक्रय के मध्यस्थ भारतेन्दु जी ही थे और जब इसका कमीशन, जो सात सहस्र के लगभग था, मिला तो उसे उन्होंने अपने एक जाति-भाई बा० झब्बू लाल को दे डाला, जो उस समय कुछ अर्थ-कष्ट में थे और जिन पर भारतेन्दु जी की कृपा रहती थी।