पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

रचनाएँ १६३ सं०१६३० वि० में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' नामक प्रहसन रचा गया। इसमें चार अंक हैं और शुद्ध कवि-कल्पना-प्रसूत है। पहिले अंक में मांस-भक्षण तथा विवाह का समर्थन कराया गया है । दूसरे अंक में वेदांती, शैव और वैष्णव आते हैं और पाखं- डियों के तर्क से उकता कर चले जाते हैं। तीसरे में मांस-भक्षण और मदिरा पायियों द्वारा पुन: वैदिकी-हिंसा का धर्मानुमोदित होना पुष्ट कराया गया है। इसके लिए शास्त्रों के बहुत से उद्धरण भी दिए गए हैं। चौथे अंक में यमराज द्वारा इन हिंसकों को दंड दिलाया गया है। इस प्रहसन में भारतेन्दु जी ने मतमतांतर होने के कारण तत्कालीन अनेक विद्वानों और प्रसिद्ध पुरुषों पर आक्षेप करते हुए उनकी इस नए हास्य पूर्ण चाल से समालोचना की है । एक सज्जन 'जिनके घर में मुसलमानी स्त्री है उनकी तो कुछ बात ही नहीं, आज़ाद हैं' का उल्लेख कर लिखते हैं 'नहीं कह सकते कि भारतेन्दु जी का यह कटाक्ष स्वयं अपने ऊपर है या किसी दूसरे पर-1 सत्य ही आप ने इतना लिखकर अपने से अधिक अनजानों के हृदय में यह शंका उत्पन्न कर दी कि भारतेन्दु जी स्यात् मांस मदिरा के भक्त थे। एक हिन्दू केवल मुसल्मानी रखने से मांस-मदिरा का भक्त हो ही जायगा, यह अनिश्चित है और शब्दावली भी स्पष्ट है कि मुसल्मानी रखनेवाला मांस-मदिरा सेवन करने के लिये स्वतंत्र है, वह सेवन करे या न करे, यह उसकी इच्छा पर निर्भर है। अस्तु, यह आक्षेप भारतेन्दु जी ने किसी ऐसे सज्जन पर किया होगा जो मुसलमानी रखने तथा मांस मदिरादि सेवन के साथ साथ बाद को मुसलमान हो गए होंगे। भारतेन्दु जी ने जिस मुसलमानो को रखा था, वह हिन्दू थी और मुसल्मान हो गई थी। इसका उल्लेख अलग हो चुका है। १३