पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०३

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१६४ भारतेंदु हरिश्चन्द्र यह प्रहसन जिस उद्देश्य से लिखा गया है, उसे वह पूर्ण रूप ले चरितार्थ कर रहा है। प्रत्येक पात्र का उपयुक्त चित्रण भी हुआ है और भाषा सरल लथा बोलचाल की रखी गई है। इसी वर्ष के अत में कधि कांचन कृत 'धनंजय-विजय' व्यायोग का अनुवाद पूरा हुआ। इस व्यायोग का एक अनुवाद इसी समय काश्मीरनरेश महाराज रणधीरसिंह की आज्ञा से पं० छन्नूलाल द्वारा किया गया था। यह सं० १६३२ में काश्मीर में मूल, पद्यानुवाद तथा शेखर कृत बार्तिक सहित लीथो में प्रकाशित हुआ था और प्रायः प्रति पृष्ठ में एक एक साधारण चित्र भी लीथो ही में दिए गए हैं। इसकी भाषा अति भ्रष्ट तथा पद्य शिथिल हैं और स्यात् मूल की इस दुर्दशा को देखकर ही भारतेन्दु जी ने यह अनुवाद किया होगा। इस व्यायोग में पद्य भाग अधिक है। इसकी कथा इतनी ही है कि पांडवों के राजा विराट की सभा में अज्ञातवास करने के अन्तिम दिन कौरवों ने उक्त राजा का गोधन हरण कर लिया और अकेले अर्जुन उन सब को परास्त कर गायों को लौटा लाए । अनुवाद बहुत अच्छा हुआ है । पद्य में दोहे अधिक हैं। सन् १८७३ ई० में यह पहिले पहिल हरिश्चन्द्र मैगजीन में छपा था। सं १९३२ वि० में भारतेन्दु जी ने 'प्रेम-योगिनी' नामक नाटिका लिखना आरंभ किया था पर इसके केवल चार गीक ही लिखे गए और यह ग्रंथ अपूर्ण रह गया। इन चार दृश्यों में काशी की वास्तविक दशा ही का वर्णन किया गया है और आज भी कुछ कमी-बेशी के साथ ठीक वही दशा दिखला रही है। इस प्रकार के अनेक दृश्य दिखलाए जाने योग्य बच गए थे पर स्यात् स्वत: या किसी के दबाव में पड़कर वे चित्रित नहीं किए गए । भारतेन्दु जी ने कुछ "आप बीती" का भी इसमें वर्णन