पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२०४

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रचनाए किया है और यदि यह ग्रंथ पूर्ण हो जाता तो कवि के मानसिक कष्ट तथा सुख पर विशेष प्रकाश पड़ता। यह चार अंक ही इनकी निरीक्षण तथा व्यक्तीकरण शक्ति का उत्कृष्ट नमूना है। इसके प्रथम दो गर्भीक 'काशी के छायाचित्र या दो भले-बुरे 'फोटोग्राफ' के नाम से एक बार प्रकाशित हुए थे 'सत्यहरिश्चन्द्र' भारतेन्दु जी की सर्वोकृष्ट मौलिक रचना कही जाती है। क्षेमीश्वर का चंडकौशिक तथा रामचन्द्र का सत्यहरिश्चन्द्रम् और इस सत्यहरिश्चन्द्र तीनों ही का मूल आधार एक ही पौराणिक कथा है पर सभी रचनाएँ एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। चंडकौशिक से अवश्य कुछ श्लोक इसमें उद्धृत हैं पर और सब कुछ भारतेन्दु जी की निज को कल्पना है। स्वप्न में दान की हुई वस्तु को जागृत होने पर सत्य मान कर दे देना अयोध्या-नरेश क्षत्रिय वीर महाराजा हरिश्चन्द्र के सत्यप्रतिज्ञ होने की पराकाष्ठा है तथा सत्य-प्रतिज्ञ कवि के योग्य है। साधारण पुरुष में यह बात नहीं आ सकती और वे इसे केवल राजा हरिश्चन्द्र के मस्तिष्क का विकार मात्र समझेंगे, पर है यह आदर्श बहुत ऊँचा । विश्वामित्र के आने पर समग्र पृथ्वी उन्हें सौंपना तथा दक्षिणा के लिए पुत्र-कलत्र के साथ काशी में बिकने जाना उनके सत्य विचारों का ध्रुव सत्य होना दिखलाता है। काशी तथा गंगा का वणन करते हुए वहीं स्त्री-पुरुष का बिक कर दक्षिणा चुकाना और अपने कामों को, जो उनके योग्य कभी भी न थे, सत्यप्रतिज्ञ होने ही के कारण निबाहना उनके चरित्र तथा आत्मबल को उज्ज्वलतर करता है। ऐसे कष्टमय समय में पुत्र की सर्पदंशन से मृत्यु का होना, शव को लेकर रानी शैव्या का स्मशान पहुँचना और राजा हरिश्चन्द्र के अपना धर्म समझकर पुत्र के अधखुले शव के आधे कफन के माँगने पर उसे के ध्यान