पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२

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पूर्वज-गण न हो सके । जब उनके वृद्ध जमादार जगन्नाथ या जगमन्तसिंह ने जो सद्वंश जात क्षत्रिय था, देखा कि अब ये फिरंगी शीघ्र ही अन्तःपुर में प्रविष्ट हुआ चाहते हैं तब उसका रक्त खौल उठा । उसके स्वामी के पवित्र कुल की कुलबधुओं पर परपुरुष की छाया पड़े और उनके निष्कलंक शरीर यवनों के स्पर्श से कलंकित हों ऐसा विचार ही उस स्वामिभक्त क्षत्रिय वीर के लिए असह्य हो उठा। उसने यह झट निश्चय कर लिया कि वह उस अंतःपुर तथा उन अन्तःपुर-वासिनियों ही को न रहने देगा। उसने तुरन्त प्राचीन हिन्दू गौरव नीति के अनुसार एक बड़ी चिता जला दी और स्वामी के परिवार की तेरह कुलबधुओं के सिरों को धड़ से अलग कर चिता में डाल दिया। अनुकूल वायु पाकर चिता भभक उठी और सिंहद्वार तक का भवन अग्नि के लपट में भस्म हो गया। जगन्नाथ ने यद्यपि उसी सती-शोणित-सिक्त तलवार से आत्महत्या करनी चाही थी पर उसका अभी समय नहीं आया था। नवाब सिराजुद्दौला ने इसी जगन्नाथ सिंह की सहायता से, जो अंग्रेजों से अपने स्वामी का बदला लेने के लिए नवाब के कैम्प में चला गया था, पूरब की ओर से जहाँ अंग्रेज़ सतर्क नहीं थे, कलकत्ता के उस अंश पर अधिकार कर लिया, जिसमें देशी व्यापारी अधिक थे। गवर्नर ड्रेक, जंगी कैप्टेन मिनचिन आदि बहुत से अंग्रेज फलत: भाग गये और हॉलवेल की अध्यक्षता में बचे हुए यूरोपीयन फोर्ट विलियम की रक्षा के प्रयत्न में लगे। हॉलवेल ने इस संकटमय समय पर उन्हीं अमीनचंद की शरण ली, जिसके धन-जन का एक ही दो दिन पहले उन्हीं के भाइयों द्वारा नाश हुआ था। उनके गिड़गिड़ाने पर अमीनचंद ने हुगली के फौजदार राजा मानिकचंद के नाम एक सिफारशी चिट्ठी लिख दी, जो दीवाल पर से नीचे डाल दी गई। इसमें