पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२२३

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राजभक्ति-विषयक २१५ सितम्बर सन् १८८२ ई० को सन्ध्या समय टाउन हाल में उत्सव मनाने के लिए सभा हुई । राजा शिवप्रसाद सभापति बनाए गए थे। इसी अवसर पर यह कविता पढ़ी गई थी। पहिले ग्यारह दोहों में प्रश्न है कि क्यों यहाँ चारों ओर प्रसन्नता छाई है और उसके बाद सात रोलाओं में, उसके उत्तर में, मिश्र-विजय का समाचार है। इसके अनन्तर कवि भारत के प्राचीन गौरव का उल्लेख कर उसकी अर्वाचीन परतन्त्रावस्था पर रोता है, और तब भारतीय सेना मिश्र जाकर विजय प्राप्त करने का वर्णन करता है। प्रायः दो सौ पंक्तियों का यह छोटा-सा काव्य प्रत्येक देशप्रेमी के लिये नित्य पठनीय है। सन् १८८३ ई० में इंग्लैंड में एक जातीय संगीत सभा ( 'नैशनल एंथेम सोसाइटी ) स्थापित हुई, जिसका उद्देश्य प्रायः सभी प्रचलित हिन्दुस्तानी भाषाओं में नैशनल ऐन्थेम का अनुवाद कर वहाँ की सभाओं में गाने योग्य बनाने का था। भारतेन्दु जी ने इसके लिये काशी में विद्वानों की एक सभा कर उसकी ओर से आशीर्वाद तथा हिन्दी अनुवाद भेजवाया था। इन्होंने इसके पहिले भी एक अनुवाद विलायत भेजा था । इस विषय में इनसे कई बार पत्रोत्तर भी हुए थे। उस ऐन्थेम के प्रथम पद का अनुवाद इस प्रकार हुआ है। प्रभु रच्छहु दयाल महरानी। बहु दिन जिए प्रजा सुखदानी। हे प्रभु रच्छुहु श्री महरानी । सूब दिस में तिनकी जय होई। भय खोई। राज करै बहु दिन लों सोई। हे प्रभु रच्छहु श्री महरानी ।। रहै प्रसन्न सकल