पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७३

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखे जाने पर स्यात् न होते । इनसे भाव-व्यंजना में बड़ी सुग- मता हो जाती है । मुहाविरे के थोड़े शब्दों में अधिक बातें समा- विष्ट रहती हैं। भारतेन्दु जी ने इस प्रकार के मुहाविरों को प्रचु- रता से प्रयुक्त किया है। लोहे का चना चबाना, अपने रंग में मस्त होना, सोरहो दंड एकादशी, अंधी की लकड़ी, कोख में आग: लगाना, कलेजे पर सिल रखना आदि मुहाविरों ने इनकी भाषा में खूब चलतापन और सजीवता ला दी है । इनकी कविता में भी लोकोक्तियों और मुहाविरों की खूब बहार है और इनका अलग उल्लेख हो चुका है। नाव्यशास्त्र-ज्ञान वास्तव में हिन्दी-साहित्य में नाटकों का आरम्भ भारतेन्दुजी की कृतियों ही से माना जाता है इसलिए उनके इस विषय के ज्ञान की भी कुछ परख करना आवश्यक है । यहाँ पहिले दो विद्वान पारखियों की राय दी जाती है । एक तो हिन्दी के दिग्गज विद्वान रायसाहब बा० श्यामसुन्दरदास हैं, जिनकी विवेचना सेदो प्रकार की ध्वनि निकलती है। पहिली यह है-'इस प्रकार के अनेक. उदाहरण उपस्थित किए जा सकते हैं, जिनसे यह स्पष्ट विदित हो सकता है कि भारतेन्दु जी को दृश्यकाव्य का न तो पूरा पूरा साहित्यिक ज्ञान था और न व्यावहारिक, तथा उन्होंने यूरोपीय और भारतीय पद्धतियों के भेदों को भी पूर्ण रूप से हृदयंगम नहीं किया था, पर थे वे एक निपुण लेखक और अच्छे कवि । इसलिये उनकी कृतियों के ये सब दोष छिप जाते हैं और पाठकः उनके नाटकों को पढ़ कर और उसके मूलभाव से आनन्द प्राप्त करते हैं। दूसरी इस प्रकार है-'सारांश यह कि भारतेन्दु जी ने अपने नाटकों में न तो भारतीय पद्धति का अनु- मुग्ध होकर