पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/२७७

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२७० । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र शिल्पी की एक-एक निजो शैली हो जाती है। काव्य की आत्मा रस की प्राण-प्रतिष्ठा को अत्यंत आवश्यकता है, क्योंकि इनके बिना नाटक नीरस और निर्जीव ही रह जायगा । संस्कृत-साहित्य में रस-विरोध न होना आवश्यक बतलाया गया है पर नवीन प्रणाली के दुःखांत नाटकों में ऐसा हो जाना अवश्यम्भावी हो गया है। कथावस्तु के प्रयोजन को सिद्धि के उपाय को अर्थ प्रकृति कहते हैं, जो पाँच होती हैं । इनके नाम बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य हैं । प्रयोजन सिद्ध्यर्थ प्रारम्भ किए गए कार्य की पाँच अवस्थाएँ होती है, जिनके नाम प्रारम्भ, यत्न, प्राप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम हैं। एक ही प्रयोजन से युक्त पर इतिवृत्त के अवस्थानुसार विभक्त हुए कथांशों के अवांतर संबंधों से पाँच संधियाँ होती हैं, जिन्हें मुख, प्रतिमुख, गर्भ, विमर्श और निर्वहण कहते हैं। इन संधियों में पहिले के बारह, दूसरे के तेरह, तीसरे के तेरह, चौथे के तेरह और पाँचवें के चौदह अंग होते हैं । परन्तु इन सबका आधुनिक काल में भारतेन्दु जी के अनुसार विशेष कुछ काम नहीं है, जैसा ऊपर के एक उद्धृत अंश से ज्ञात हो जायगा। पाश्चात्य नाट्यकला में पूर्वोक्त अर्थप्रकृति तथा संधि का विश्लेषण नहीं है. पर कथावस्तु के कर्मानुसार पाँच अवस्थाएँ मानी जाती हैं। पहिली और पाँचवीं आरम्भ और अंत हैं तीसरी वह है जिसे क्लाइमेक्स अर्थात् चरम सीमा कहते हैं। दूसरी और चौथी अवस्था चढ़ाव और उतार हैं । यह पाँचो भेद साधारण हैं। नाटकों में प्रायः प्रेमियों की लीला प्रदर्शित की जाती है। उदाहरणार्थ एक प्रेमलीला लीजिए। दो प्राणियों के प्रेमांकुरण से इसका आरम्भं होता है । उसके मार्ग में रुकावट पड़ती है पर