पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३०९

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खड़ी बोली तथा उर्दू कविता] ३०३ कसर है और किस उपाय के अवलम्ब करने से इस भाषा में काव्य सुन्दर बन सकता है। इस विषय में सर्वसाधारण की अनुमति ज्ञात होने पर आगे से वैसा परिश्रम किया जायगा। तीन भिन्न-भिन्न छंदों में यह अनुभव करने ही के लिए कि किस छंद में इस भाषा का काव्य अच्छा होगा, कविता लिखी है । मेरा चित्त इससे सन्तुष्ट न हुआ और न जाने क्यों ब्रजभाषा से मुके इसके लिखने में दूना परिश्रम हुआ। इस भाषा की क्रियाओं में दीर्घ मात्रा विशेष होने के कारण बहुत असुविधा होती है। मैंने कहीं कहीं सौकयं के हेतु दीर्घ मात्राओं को भी लघु करके पढ़ने की चाल रक्खी है। लोग विशेष इच्छा करेंगे और स्पष्ट अनु- मति प्रकाश करेंगे तो मैं और भी लिखने का यत्न करूंगा।" अब खड़ी बोली को इनको कुछ कविता उद्धृत की जाती बना चूरन अमलबेद का भारी । जिसको खाते कृष्ण मुरारी। मेरा पाचक है पचलोना । जिसको खाता श्याम सलोना ॥ चूरन मसालेदार । जिसमें खट्टे की बहार । मेरा चूरन जो कोई खाय । मुझको छोड़ कहीं नहिं जाय ॥ हिन्दू चूरन इसका नाम । विलायत पूरन इसका काम । चूरन जब से हिन्द में आया। इसका धन बल सभी घटाया ॥ बीर बहूटी मखमली, बूटी सी अति लाल । हरे गलीचे पै फिरे, सोभा बड़ी रसाल ॥ करके याद कुटुम्ब की, फिरे विदेशी लोग। बिछड़े प्रीतम वालियों के सिर छाया सोग ॥ लोड छोड़ मरजाद निज, बढ़े नदी नद नाल । लगे नाचने मोर बन, बोले कीर मराल ॥ .