पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३१४

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के हृदयों पर चोट पहुँचती है तभी उनका कारुण्य उद्विग्न हो उठता है । कुछ और नीजिए- बुरा हो इश्क का यह हाल है अब तेरी फुरकत' में । कि चश्मे खूचकार से लख्ते-दिल पैहम निकलते हैं। फुगाँ करती है बुलबुल याद में गर गुल के ऐ गुलची । सद ५ इक श्राह की आती है जब .गुञ्चे चटकते हैं। कोई जाकर कहो यह आखिरी पैगाम उस बुत से। अरे आ जा अभी दम तन में बाकी है, सिसकते हैं। दोस्तो कौन मेरी तुरबत पर। रो रहा है 'रसा रसा' करके ।। अधिक दुःख पाने से मनुष्य चिड़चिड़ा हो उठता है, वह हवा, काँटे वगैरह सभी से लड़ने-झगड़ने लगता है, कुछ उन्माद सा हो जाता है- उड़ा दूंगा. रसा मैं धज्जियाँ दामाने सहरा की। अबस' खारे बियाबाँ मेरे दामन से अटकते हैं ।। अन्त में मृत्यु का समय आता मालूम होता है, उपदेशक कह उठा कि 'मूठी बाँधे आया साधो हाथ पसारे जाता है।' कत्रि उसी को अपनी ढंग से कहता है। पुष्प में सौन्दर्य और सुगंधि है, वह वास्तव में नित्य है, आज खिला है, कल नहीं है। उसका मूल्य कुछ नहीं है पर अमूल्य है, ऐसे दो फूल भी चलते चलाते न ले जा सकने पर रञ्ज होना स्वाभाविक है, सब कुछ छोड़ चले पर तब भी ले चले दो फूल भी इस बागे बालम से न हम । वक्त रेहलत हैफ है खाली ही दामाँ रह गया। जुदाई, विरह । २जिससे रक्त टपक रहा है । बराबर, सदा।

  • फूल चुननेवाला, माली । प्रावाज, शब्द । 'कन, मज़ार । जंगल ।

व्यर्थ, फजूल । 'महायात्रा, मत्युकाल । 5