पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२२

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[भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सिसताई अजौं न गई तन ते तउ जोबन जोति बटोरै लगी। सुनि के चरचा 'हरिचन्द' की कान कछूक दै भौंह मरोरै लगी॥ बचि सासु जेठानिन सों पियतें दुरि घूघट में हग जोरै लगी। दुलही उलही सब अंगन तें दिन द्वै ते पियख निचोरै लगी। श्राजु लौं जो न मिले तो कहा हम तो तुमरे सब भाँति कहावें मेरो उराहनो है कछु नाहिं सबै फल आपुने भाग को पावै ।। जो 'हरिचन्द' भई सो भई अब प्रान चले चहैं तामों सुनावें । प्यारे जू है जग का यह रीति बिदा की समै सब कंठ लगावै ।। कुछ पद्यांश भी दिए जाते हैं जिससे मुहाविरे की भी बहार, मिलेगी- १-कान्ह भए प्रानमय प्रान भए कान्हमय, हिय मैं न जानी परै कान्ह है कि प्रान २-गोप सों जो पै भए रजपूत लड़ो किन जोड़ को श्रापुने जानी । मारत हौ अबलागन को तुम याही मै वीरता पाय खुटानी ।। ३-प्रीतम के सुख में पियमै भई पाए ते लाल के जान्यौ अकेली।। Y-प्रीतम पिबारे नन्दलाल बिनु हाय यह, सावन की रात किधी द्रौपदी की सारी है -सो बनि पंडित ज्ञान सिखावत कूबरी हू नहिं ऊबरी जासों ॥ ६-मो दुखिया के न पास रहौ उडिकै न लगै तुमहूँ को कहूँ दुख । ७-एक जो होय तो ज्ञान सिखाइए पहि में यहाँ भाँग परी है ।। ८-साँचे में खरी सी परी सीसी उतरी सी खरी, बाजूबंद बाँधे बाजू पकरि किवार के ६-पगन में छाले परे नाँधिबे को नाले पर, तऊ लाल लाले परे रावरे दरस कै।। . २०-रँग दुसरो और चढ़ेगो नहीं अलि साँवरो रंग रँग्पो सो रँग्यो । ११-सुख कौन सो प्यारे दियो पहिले जिहि के बदले यो सताय रहे ।