पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३२७

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अनुवाद] ३२१ यों सुनि नन्द निदेस चले दोउ कुञ्जन में हरि भानु-दुलारी । सोई कलिन्दी के कूल इकन्त की केलि हरै भवभीति हमारी ॥ गीत-गोविन्द के पंचम पद का कुछ अंश अनुवाद सहित नीचे दिया जाता है- संचरदधरसुधामधुरध्वनिमुखरितमोहनवंशं । चलितहगंचलचंचलमौलिकपोलविलोलवतंशं ।। रासे हरिमिह विहित विलासं स्मरति मनो ममकृत परिहास ॥ध्रुवपदं।। चंद्रकचारुमयूरशिखंडक मंडलवलयितकेशं । प्रचुरघुरंदरधनुरनुरंजितमेदरमुदिरसुवेश ।। मणिमयमकरमनोहरकुण्डलमंडितगंडमुदारं । पीतवसनमनुगतमुनिमनुजसुरासुरवरपरिवारं ।। विशदकदंबतले मिलितं कलिकलुषभयं शमयंतं । मामपि किमपि तरंगदनंगदृशा मनसा रमयंतं ।। श्रीजयदेवभणितमति सुन्दर मोहनमधुरिपुरूपं । हरिचरणस्मरणं प्रतिसंप्रति पुण्यवतासनुरूपं ॥ जिय तें सो छबि टरत न टारी। राबविज्ञास रमत लखि मो तन हँसे जौन गिरधारी ॥ध्रु०॥ अधर मधुर मधु पान छकी बंसी-धुनि देत छकाई। श्रीव डुलनि चंचल कटाच मिलि कुण्डल-हिलनि सुहाई ॥ घुघुरारी अलकन पै प्यारी मोर-चन्द्रिका राजै । नवल जल धन मैं मनु सुन्दर इन्द्रधनुष अनि लाजै ॥ गंडन पर मनिमंडित कुण्डल कलकत सब मन मोहै । सुर-नर-मुनिगन-बन्दित कटि-तट लपटि पीतपट सोई॥ बिसद कदम्ब तरे ठाढ़े जन-भव-भय-मेटनवारे । काम भरी चितवन लखि मम उर काम-बदावनहारे ।