पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३३५

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- [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र २-तनहि बेचि दासी कहवाई । मरत स्वामि प्रायसु बिन पाई। करु न अधर्म सोचु मन माहीं । 'पराधीन सपने सुख नाहीं।।' धर्मवीर, दानवीर तथा सत्यवीर महाराज हरिश्चन्द्र पुत्र- शोक पीड़िता महारानी शैव्या को आत्महत्या करने पर उद्यत देख- कर कहते हैं कि 'जिस शरीर को बेचकर दासी हुई उसको स्वामी की आज्ञा बिना लिए किस प्रकार नष्ट कर सकती हो । मनमें इस प्रकार विचार कर अधर्म न करो क्योंकि परतंत्र को स्वप्न में भी सुख नहीं है।' वह असह्य कष्ट पाती हुई उनसे छुटकारा पाने के लिये अपनी मृत्यु भी नहीं बुला सकती। धर्म की कैसी मर्मस्पर्शी व्यंजना है। हृदय भर जाता है, धर्म वीरत्व के सभी लक्षण होने से इस पद में वीर रसत्व प्रचुरता से आ गया है ३–जेहि पालों इक्ष्वाकु सों, अब लौ रवि-कुल-राज । ताहि देत हरिचंद नृप, विश्वामित्रहि अाज ।। समग्र राज्य को बिना किसी प्रकार के प्रतिफल की इच्छा से राजा हरिश्चन्द्र विश्वामित्र को दान कर देते हैं। राज्य-दान में उत्साह स्थायी भाव है । दानपात्र विश्वामित्र आलंबन और दान देने की चेष्टा उद्दीपन है। सर्वस्व दान देने से अनुभावित होकर तथा मति आदि संचारियों से परिपोषित होकर यह दोहा दान- वीर रसत्व को प्राप्त हुआ। इस दोहे में यह शंका उठाई जा सकती है कि दान देने में राजा हरिश्चन्द्र को कुछ कष्ट ज्ञात हो रहा है पर नहीं आगे का दोहा इसे स्पष्ट कर देता है- बसुधे ! तुम बहु सुख कियो, मम पुरुषन की होय । धरम बद्ध हरिचंद को, छमहु सु परबस जोय ॥ अर्थात् धर्मबद्ध होने ही के कारण राजा हरिश्चन्द्र उस पृथ्वी को जिसका पालन उनके कितने पर्वजों ने किया था और जो उस --