पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५५

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३४८ [ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ओर देखो। नाथ ! अब नहीं सही जाती । कृत्रिम प्रेम-परायण और स्वार्थपर संसार से जी अब बहुत ही घबड़ाता है । सब तुम्हारे स्नेह के बाधक हो हैं, साधक कोई नहीं, और जो स्वार्थपर नहीं हैं वे विचारे भी क्या हैं कि कुछ सन्तोष देंगे। हाय ! क्या करें । हार कर के स्नेह करके जैसे हो वैसे तुम्हारे ही शरण जाते हैं और वहाँ से भी दुरदुगए जाँय तो फिर क्या करें ।" इनका अनन्य प्रेम बहुत चढ़ा हुआ था। अपने 'गोपाल' को मूर्ति का कैसा सुन्दर वर्णन किया है- सकल की मूलमयी वेदन की भेदमयी, ग्रंथन की तत्वमयी बादन के जाल की। मन बुद्धि सीमामयो सृष्टिहु की श्रादिमयी, देवन की पूजामयी जीवमयी काल की ।। धानमयी ज्ञानमयी सोभामयी सुखमयी, गोपी-गोप-गाय ब्रज भागमयी माल की। भक्त-अनुरागमबी राधिका-सुहागमय', प्राणमयी प्रेममयी मूरति गोगल की। और फिर कहते हैं कि यदि संसार में हमें कुछ करना है तो चह सब 'गोपाल' ही के निमित्त है । सुनिए- मी तो गोगन ही को सेमैं तो गुगलै एक, मेरो मन लाग्यो सब भाँति नन्दलाल सों। मेरे देव देवी गुरु माता पिता बन्धु इष्ट, मित्र सखा हरि नातो एक गोप बाल सो।। 'हरीचंद' और सो न मेरो सनबन्ध कछु, प्रासरो सदैव एक लोचन बिसाल सों। माँगों तो गुपान सो न मांगों तो गुपाल ही सों, रीमो तो गुगल पै नौ खीझौं तो गुगल सों । A