पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५६

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इश्वरोन्मुख प्रेम] ३४६. पत्य ही इस अनित्य संसार के एक भी संबध अंत में काम नहीं आते हैं और यह बड़ा हा क्रूर सत्य है। यह वह बात है कि प्रत्येक जीव उसे जानते हुए भी भयादि कारणों से उसे न जानने का स्वाँग करता है। द्वारहिं पै लुटि जायगो बाग श्री आतिसबाजी छिनै में जरैगी। ह। बिदा टका लै हय हाथिहु खाय पकाय बरात फिरैगी ।। दान दै मात पिता छुटिहैं 'हरिचन्द' सखीहु न साथ करेगी । गाय बजाय जुदा सब है हैं अकेली पिया के तू पाले परैगी ।। इस अनन्यता से यह तात्पर्य नहीं है कि भारतेन्दु जी में हठ.. धर्मी थी । 'हस्तिना पीड्यमानोऽपि न गच्छेत् जैनमन्दिरम्' के रहते भी वे ऐसे मंदिर में गए थे और शोर गुल मचाने पर 'जैन- कुतूहल' ही लिख डाला। सियाराममय' के भाव में कहते हैं- बात कोउ मूरख की यह मान । हाथी मारै तौं हू नाह) जिन मन्दिर में जाती। जग में तेरे बिना और है दूजो कौन ठिकानो। जहाँलखो तहाँ रूप तुम्हारो नैनन माहिं समानो ।। एकडेम है, एकहि प्रन है हमरो एकहि बानो । 'हरीचंद' तब जग में जो भाव कहाँ प्रगटानो । इनका प्रेम सर्वतोमुखी था। धर्म की व्याख्याएँ करते हुए भी यह देश को नहीं भूले । 'वैष्णवता और भारतवर्ष में धर्म की प्राचीनता स्थापित करते हुए अंत में लिखते हैं कि ' उपासना एक हृदय की रत्न वस्तु है उसको आर्यक्षेत्र में फैलाने की कोई आव- श्यकता नहीं। वैष्णव शैव ब्राह्म आर्यसमाजी सप अलग अलग पतली पतली डोरी हो रहे हैं इसी से ऐश्वर्य रूपी मस्त हाथी उनसे नहीं बँधता । इन सब डोरी को एक में बाँध कर मोटा