पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३५८

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देश-प्रेम] तक जो बड़े बड़े दृश्य यहाँ बीते हैं और जो महायुद्ध, महाशोभा और महादुर्दशा भारतवर्ष की हुई है उनके चित्र नेत्र के सामने लिख जाते हैं। यही कारण है कि उनकी समग्र कृति में देश के प्रति उनका जो प्रेम था वह किसी न किसी रूप में परिलक्षित होता रहता है। भारत की करुण कथा के तीन स्पष्ट विभाग हैं और इन तीनों की भारतेन्दु जी ने जो मार्मिक व्यंजना की है उसे पढ़ कर सहृदयों के हृदय में अतीत के प्रति गर्व, वर्तमान के लिये क्षोभ और भविष्य के लिए मंगल कामना एक के बाद दूसरी उठ कर उन्हें उद्वेलित कर देती है। इतिहास, नाटक, काव्य सभी में इन्होंने देश-दशा पर जो कुछ कहा है उनके एक एक शब्द इनके हृदय-रक्त से रंजित है। किसी स्थान विशेष की दुर्दशा का वर्णन तभी किया जा सकता है जब वह उस कुदशा को प्राप्त होने के पहिले बहुत ही समुन्नत अवस्था में रहा हो। भारत पहिले कितनी उन्नत अवस्था में था, इसका कवि ने बहुत उदात्त पूर्ण वर्णन किया है पर साथ ही ध्यान रहे कि वह सब कविता भारत की दुर्दशा देखकर कवि के दग्ध हृदय से निकली है । कवि कहता है 'हा ! यह वही भूमि है जहाँ साक्षात् भगवान श्री कृष्णचन्द्र के दूतत्व करने पर भी वोरो- त्तम दुर्योधन ने कहा था "शूच्यग्रं नैव दास्यामि बिना युद्धन केशव" और आज हम उसी भूमि को देखते हैं कि श्मशान हो रहो है।' इसी भाव से देशभक्त कवि मर्माहत हो रहा है, उसका भारत की प्राचीन अवस्था का वर्णन करना मानो जले हुए दिल के फफोले फोड़ना है । देखिए- ये• कृष्ण-बरन करते जब मधुर तान । अमृतोपम वेद गान ।