पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६०

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देश-प्रेम] ३५३ शताब्दियों में हिन्दुओं ने स्वातंत्र्य के लिए घोर प्रयत्न किया और स्यात् वे उसमें सफल भी होते पर नई नई वाह्य शक्तियों ने आ कर उनके उस प्रयास को विफल कर दिया। उसकी वही दशा ज्यों की त्यों बनी रह गई। स्वभावतः यह भी देखा जाता है कि समान दुःख के साथी यदि मिल जाते हैं तो दुःखी हृदय को बहुत धैर्य मिल जाता है। भारत ही के समान ग्रीस और रोम भी पहिले बहुत उन्नत अवस्था में थे, सभ्यता की दीक्षा देने में येही दोनों समग्र योरोप के गुरु माने जाते थे, पर बाद को अर्वा- चीन-काल में इनको अवस्था बहुत खराब हो गई थी। इसके अनन्सर इन दोनों ने पुनः उन्नति कर. ली है पर भारत वैसा ही बना रह गया है । दुःख के साथियों के रहने से जो धैर्य था वह भी भारत के भाग्य में न रह गया, जिससे उसे- रोम प्रील पुनि निज बल पायो । सब विधि भारत दुखी बनायो।। इस में क्षोभ, अधैर्य, द्वेष, विषाद सभी का सरल सम्मिश्रण है। कवि कह उठता है- कहा करी तकसीर तिहारी। रे बिधना भारतहि दुखारी। सोइ भारत की आज यह भई दुरदशा हाय । कहा करें किंत जायँ नहिं सूझत कछू उपाय । जब कुछ उपाय नहीं सूझता, तब मनुष्य 'क्षीणा नराः का पुरुषा भवंति' के अनुसार प्राण देना ही उत्तम समझता है। सुनिये- काशी प्राग अयोध्या नगरी। दोन रूप सम ठादी सगरी ।। चंडालहु जेहि निरखि घिनाई। रही.सबै भुव मुंह मसि लाई हाय पंचनद ! हा पानीपत ! अजहुँ रहे तुम धरनि बिराजत ।। हाय चिचौर ! निलज तू भारी । अजहुँ खरो भारतहि मैं मारी ॥ जा दिन तुव अधिकार नसायो । सो दिन क्यों नहि धरनि समायो। २३ ।