पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६२

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5 . , देश-प्रेम] ३५५ है अनाथ भारत कुल-विधवा बिलपहि दीन दुखारी। बल करि दासी तिनहिं बनायहिं तुम नहिं लजत खरारी॥ कहाँ गए सब शास्त्र कही जिन भारी महिमा गाई। मकबछल करुनानिधि तुम कहँ गायो बहुत बनाई ॥ हाय सुनत नहिं निठुर भए क्यों परम दयाल कहाई। सब विधि बृहत लखि निज देसहि लेहु न अबहुँ बचाई ॥ भारत के मेवे फूट और बैर, यहाँ के विभीषणों तथा विषय- भो । लोलुप राजाओं, अविद्या अंधकार आदि के मारे दुर्दशा- अस्त देश को देख कवि ने घबड़ाकर एक देवता से इस प्रकार कहला डाला है- सब भाँति दैव प्रतिकूल होइ एहि नासा । अब तजहु बीर-बर भारत की सब प्रासा ।। इत कलह विरोध सबन के हिय घर करिहै । मूरखता को तम चारहु ओर पसरिहै ।। वीरता एकता ममता दुर सिधरिहै। तजि उद्यम सब ही दासवृत्ति अनुसरिहै ।। नसि जैहैं सगरे सत्यधर्म अविनासी । निज हरि सों है हैं विमुख भरतभुववासी ।। 'धन्य भारत भूमि ! तुझे ऐसे ही पुत्र प्रसव करने थे। हाय ! मुहम्मद शाह और वाजिद अलीशाह तो मुसजमान होके छूटे पर मल्हारराव का कलंक हिन्दुओं से कैसे छूटेगा। विधवा- विवाह सब कराया चाहते हैं पर इसने सौभाग्यवती विवाह निकाला।' ऐसे अयोग्य कर्णधारों के हाथ में पड़ कर देश की दशा और बिगड़ेगी, इसी से चबड़ा कर कवि कहता है- परतिय परधन देखि, न नगन चिच चलावें । गाय दूध बहु देहि, मेव सुभ जज्ञ बरसावें ॥