पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३६३

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[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र हरि पद में रति होइ, न दुख कोऊ कहँ व्यापै। अगरेजन को राज ईस इत थिर करि थापै ।। श्रुति पंथ चलें सजन सबै सुखी होहि तजि दुष्ट-भय । कवि बानी थिर रस सो रहै भारत की नित होइ जय ॥ यहाँ कवि अपने देशवासियों की त्रुटियों को देख कर ही ऐसा लिखने को बाध्य हुआ है, वह मिल्टन के पिशाच के समान नर्क के राज्य को स्वर्ग की दासता से बढ़ कर नहीं मान सका है। वह इन त्रुटियों तथा दोषों का परिहार इस प्रकार कह कर कराना चाहता है। वह अच्छी प्रकार जानता है कि 'बदै बृटिश वाणिज्य पै हमको केवल सोक ।' और 'जज्ज कलक्टर होइहै हिन्दू नहिं तित धाइ। ये तो केवल मरनहित द्रव्य देन हित हीन ।' परतंत्रता दुःखमूलक ही है पर जब गृह ही में द्वंद्व मचा रहता है तभी दूसरे सबल पुरुष वहाँ शांति स्थापित करने आ पहुँचते हैं। भारतेन्दु जी के समय के भारत का क्या हाल था, उसे सुनिए । विद्या की चरचा फैली, सबको सब कुछ कहने सुनने का अधि- कार मिला, देश विदेश से नई नई विद्या और कारीगरी आई। तुमको उस पर भी वही सीधी बातें, भाँग के गोले, प्रामगीत, वही बाल्यविवाह, भूतप्रेत की पूजा, जन्मपत्री की विधि ! वही थोड़े में संतोष, गाय हाँकने में प्रीति और सत्यानाशी चालें ! हाय अब भी भारत की यह दुर्दशा ! बरे अब क्या चिता पर सम्ह- लेगा।' ऐसे ही लोगों का प्रबन्ध दूसरे करते हैं, कितने ही पीर नाबालिगों आदि का प्रबन्ध कोर्ट ऑव वार्ड्स अब भी कर रहा । वह समय और था तथा उसी का कवि के हृदय पर जैसा प्रभाव पड़ा था उसी के अनुसार उद्गार निकले थे। यह देशभक्त के हृदय का नीरव रूदन है, 'बधावे बजाना नहीं है। हिन्दी कविपरंपरा में भारतेन्दु जी के पहिले वीर रस के