पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३८७

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संयोग शृङ्गार ] ३८१ । भाव उबुद्ध हो गया है और प्रिय की चर्चा सुन कर भौंह मरोरना आदि हाव भी व्यक्त हो रहा है। शोभा, कांति, दीप्ति, माधुर्य सभी के होते धैर्य के साथ आँखें बचा बचा कर पति से आँखें लड़ाना प्रगल्भता प्रगट करती है भव कुंजन बैठे पिया नँदलाल जू जानत हैं सच कोक-कला। दिन मैं तहाँ दूती भुराय कै लाई महाछबिधाम नई अबला ।। जब धाय गही 'हरिचन्द' पिया तब बोजी अजू तुम मोहि छला। मोहि लाज लगै बलि पाँव पगै दिन ही इहा ऐसी न कीजै लला || इस पद में कुट्टमित हाव स्पष्ट है। पति के नायिका को अंक में लेने पर वह हाथ छुड़ाकर घबराती हुई सी नहीं नहीं कहने लगती है। अव दो-एक नायिका-भेद के भी उदाहरण दे दिए जाते हैं। वासकसज्जा नायिका उसे कहते हैं जो पति से मिलने के लिए शृङ्गार करके तथा अन्य सब तैयारी करके दुरुस्त बैठी हो। भारतेंदु जी ने ऐसी ही एक नायिका का एक सवैया में अनूठा वर्णन किया है प्रेमाधिस्य तथा औत्सुक्य ने मिलकर उस अकेली नायिका का एकाकिनीपन मिटा दिया और उस प्रोतम के वहाँ होने का ऐसा भान होने लगा कि वह अली ही केलि करने लगी। वह मानो पति के मिलने का स्वप्न देख रही थी और पति के आने पर उसे अपने अकेले होने का ज्ञान हुआ, जिससे वह अति लज्जित हुई। श्राजु सिंगार कै केलि के मन्दिर बैठी न साथ मैं कोऊ सहेली। घाय के चूमै कनौं प्रतिबिंब कबौं कहै श्रापुहि प्रेम पहेली ।। अंक में प्राघुने श्राप लगै 'हरिचन्द जू' सी करै पापु नवेली। प्रीतम के सुख मैं पिवमै भई पाए ते लाज के जान्यौ अकेली ॥ A