पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/३९७

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परिशिष्ट-प्र] ३६१ भी हुआ है। आप भी अपने पत्र में इस विषय का भलीभाँति आन्दोलन कीजिएगा । मब पत्र एक साथ कोहाहल करेंगे तब काम चलेगा। हिन्दी, उर्दू, बंगाली, मराठी, अंग्रेजी सब भाषा के पत्रों में जिनके संपादक हिन्दू हों एक बेर बड़े धूम से इस का आन्दोलन होना अवश्य है, आशा है कि अपने शक्य भर आप इस विषय में कोई बात उठा न रखेंगे। भवदीय हरिश्चन्द्र १०.५० लोकनाथ जी का पत्र श्री वृजराज समाज को, तुम सुन्दर सिरताज । दीजै टिकट नेवाज करि, नाथ हाथ हित काज ।। चतुर्वेद्य पाह्वय श्रीलोकनाथशर्मणो विज्ञप्ति पत्रमेतत् ॥ शुभम् २२ जनवरी स० १८७४ ११. श्री शालिग्रामदास जी का पत्र श्री जानकोजानिर्जयति श्री नदीय समाज सभापति सभासद समुदायेषु समुक्ति सम्मान पुरस्सर निवेदनमिदम् । परम पवित्र हृदयाहाददायक पत्र देखि महामहोत्साह प्रकट भया । आप लोगों के धन्यवाद देने में असमर्थ हूं। यदि सहस्र मुख होता तो कुछेक धन्यवाद दे सक्ता । धन्य वह करुणा-वरुणायतन परमेश्वर है कि मेरे मनाभिलाष को परिपूर्ण किया है । महाशय ! बहुत दिन से उत्कंठा थी कि कोई ऐमा अनन्य भक्त होवै । प्रभु के अनन्य पद्धति को शोधन करि अनन्त जीवों की व्यथा विध्वंस करै। इसी चिन्ता में मग्न था कि दो मास हुए एक हमारे परम मित्र अनन्योपासक श्रीयुक्त जवाहिर लाल जी ने अत्युद्योग से सभा बनाने में नियुक्त भये ।