पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४१

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२८ भारतेंदु हरिश्चन्द्र काशी के दो मेले भारत-प्रसिद्ध हैं। पहिला चौकाघाट का भरत-मिलाप है और दूसरा बुढ़वा मंगल । यहाँ चैत्र शुक्ल प्रथमा से नया वर्ष माना जाता है इस लिये चैत्र कृष्ण दूसरा मंगल वर्ष का अन्तिम मंगल होता है। यही मंगल वृद्ध या बुढ़वा मंगल कहा जाता है । मंगल का दिन ही विशेषत: दुर्गाजी के दर्शन के लिए मान्य है। उस दिन बहुत से नागरिक- गण नाव पर सवार होकर दुर्गाजी के दर्शन को जाया करते थे । धीरे-धीरे कुछ लोगों ने नावों पर नाच कराना भी आरंभ कर दिया और अन्त में काशिराज और बा० हर्षचंद के परामर्शानुसार इस मेले को वर्तमान रूप दिया गया। तब से मेला चार दिन तक मंगल से शुक्रवार तक रहने लगा। बा० राधाकृष्णदास लिखते हैं कि उन्होंने कई बार महाराज ईश्वरी- प्रसाद नारायण सिंह बहादुर को भारतेन्दु जी से यह कहते हुए सुना था कि 'इस मेले का दूलह तो तुम्हारा ही वंश है । बा० हर्षचंद का निज का कच्छा बड़ी तैयारी के साथ पटता था और उस पर लोगों के बैठाने का प्रबंध बड़ी मर्यादा के साथ किया जाता था। जाति भाइयों में नाई द्वारा निमंत्रण भी फेरा जाता था और सभी कोई गुलाबी रंग की पगड़ी और दुपट्टा पहिन कर आते थे। जिन के पास ये वस्तु न होती थीं उन्हें इनके यहाँ से मिलती थीं। चारों दिन निमंत्रित सज्जनों के भोजन का भी प्रबन्ध रहा करता था। इस प्रथा को बा० गोपालचंद जी ने भी अपने समय तक निबाहा था। काशिराज इन्हें बहुत मानते थे, इससे मोरपंखी पर सवार होकर इनके कच्छे की शोभा देखने आते थे। यह काशीनरेश के महाजन थे तथा राज्य की अशर्फियाँ इनके यहाँ सुरक्षित रखने को रहती थीं जिनके लिये इन्हें अगोरवाई मिलती थी। बा० फतेहचंद जी