पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/४४

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पूर्वज-गण समान मानती 'और भ्रातृ-द्वितीया पर टीका काढ़ती थीं। बा० हर्षचंद भी वैसे ही गुरुभक्त शिष्य थे। इन्हीं गुरु जी की आज्ञा से वल्लभ-कुल के प्रथानुसार इन्होंने अपने यहाँ ठाकुर जी की सेवा पधराई। श्री मदनमोहन जी की धातु-विग्रह युगलमूर्ति की सेवा को इनके यहाँ होते सौ वर्ष से अधिक हो गये। जिस समय श्री गिरधर जी महाराज श्री जी द्वार से श्री मुकुंदराय जी को काशी पधरा लाये थे, उस समय बारात आदि की तैयारी का कुल भार इन्हीं पर था, जिसे बड़े समारोह के साथ इन्होंने पूरा किया था। श्री मुकुदराय जी की वार्ता में इसका पूरा वर्णन दिया है। श्री गिरधर जी महाराज ने कार्तिक सुदी २, सं० १८६५ को बा० हर्षचंद के नाम एक मुख्तारनामा लिख दिया था। इससे जब वे काशी के बाहर पधारते थे तब मन्दिर का सारा कार्य इन्हीं के हाथ में रहता था। श्री श्यामा बेटी जी ने बा० गोपाल- चंद के नाम इसी प्रकार का एक मुख्तारनामा १४ मार्च सन् १८५२ ई० को लिखा था। श्री गिरधर जी महाराज जब कभी बाहर पधारते थे तब इन्हें बराबर पत्र लिखते थे। आवश्यकता पड़ने पर इन पर वहाँ से हुडियाँ भी लिखते थे जिन्हें यह बराबर सकारते थे। एक बार श्री गिरिधर जी महाराज को चालीस सहस्र रुपये की आवश्यकता पड़ गई, तब उन्होंने बा० हर्षचंद से इसका प्रबन्ध कर देने को कहा। इन्होंने कोल्हुआ तथा नाटी इमली वाले दोनों बारा महाराज को तत्काल भेंट कर दिये कि इन्हें बेंच कर काम चला लें। उसमें से केवल कोल्हुआ का बाग ही चालीस सहस्र में बिक गया और नाटो इमली का बाग अब तक मन्दिर के पास 'मुकुद विलास' के नाम से बचा हुआ मौजूद है। श्री मुकुन्दराय जी के काशी पधारने पर मन्दिर का व्यय