पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/५९

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४६ भारतेंदु हरिश्चन्द्र नबे वरवैछंद में 'स्तुति आभूषण, भेट कराया है- "इमि अस्तुति-आभूषण रचि सुर वृन्द । दियो कियो तेहि धारन हरि सानंद ॥" इसी स्तुति आभूषण की स्तुति-प्रकाशिका नाम से सानदार कवि ने विस्तृत व्याख्या की है। इसकी हस्तिलिखित प्रति का लिपिकाल सं० १६१५ है। इसका टीका के रचनाकाल का दोहा यों है- "लोक विभू ग्रह संभु सुत, रद सुचि भादो मास । कृष्ण जन्मतिथि दिन कियो, पूरन तिलक विलास ॥" बा० गोपालचन्द्र को भाँग पीने का कठिन व्यसन लग गया था और वह इतनी अधिक भाँग पीने लगे थे कि अंत में इसी ने इनका प्राण हरण कर लिया। इसी व्यसन के कारण जलोदार रोग से यह ग्रस्त हो गये और गंगा सप्तमी को बैशाख सुदी ७ सं० १९७१ वि० को इनकी मृत्यु हो गई। कविवर बा० गोपालचन्द्र कविता में गिरिधरदास, गिरि- धारन, गिरिधर उपनाम रखते थे। इसमें एक विशेषता थी कि यह इच्छानुसार सरल तथा क्लिष्ट दोनों ही ढंग की कविता करने में सिद्धहस्त थे। गर्गसंहिता आदि ग्रंथों में यह सरल शैली पर कथा कहते चले गये हैं पर जब जरासंध वध महाकाव्य, भारतीयभूषण आदि ग्रंथों में अपना काव्य-कौशल दिखलाया है तो यमक, अनुप्रास, श्लेषादि अलंकारों से पों को इतना चम- स्कृत किया है कि उन्हें किसी-किसी स्थल पर समझना कठिन हो जाता है। इन्ही अलंकारों के कारण कहीं-कहीं ऐसे असाधारण शब्दों का प्रयोग किया है कि साधारण हिन्दी कोषों में उनका अर्थ भी नहीं मिलता। यमक और अनुप्रास की छटा इनकी कविता में जैसी आई है वैसी अन्यत्र नहीं मिलती। यह विद्वान