सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६२ भारतेंदुहरिचन्द्र उनकी कीर्ति की रक्षा के लिये एक पाई व्यय करना घर फूकना समझते हैं। बाल्यकाल-पर्यटन पुण्तोया भागीरथी के तट पर स्थित पवित्र विश्वनाथपुरी काशी में भाद्रपद शु० ५ ऋषि पंचमी सं० १६०७ (६ सितम्बर सन् १८५० ई०) को सोमवार के दिन प्रातःकाल भारतेन्दु बा० हरिश्चन्द्र ने अवतीर्ण होकर हिन्दी साहित्य के गगनांगण को द्वितीया के चन्द्र के समान शोभायमान किया था। बा० गोपाल- चन्द्र का पुत्र होकर जाते रहते थे इसलिए भारतेन्दु जी की माता अपने मायके शिवाले चली गई थीं और वहीं नानिहल में इनका जन्म हुआ था। इनकी माता इन्हें पाँच वर्ष की अवस्था का और पिता दस वर्ष की अवस्था में छोड़ कर परलोक सिधारे थे । इसो बीच इतनी छोटी अवस्था ही में इन्होंने अपने पिता से महाकवि को अपनी चंचल प्रतिभा से विस्मित कर दिया था। एक बार 'बलराम कथामृत' की रचना के अवसर पर यह भी पिता के पास जा बैठे और पितासे स्वयं कविता बनाने की बड़े आग्रह से आज्ञा माँगने लगे। पिता ने बड़े प्रेम से आज्ञा देते हुए कहा कि 'तुम्हें अवश्य ऐसा करना चाहिए।' कहते हैं कि बा० हरिश्चन्द्र जी ने उसी समय निम्नलिखित दोहा बनाया। लै व्योंडा ठादे भए श्री अनिरूद्ध मुजान । बाणासुर की सेन को हतन लगे भगवान ।। बा० गोपालचन्द्र जी ने बड़े प्रेम से पुत्र के उत्साह को बढ़ाने के लिये इस दोहे को अपने ग्रन्थ में स्थान दिया और कहा कि 'तू मेरा नाम बढ़ायेगा' इसी प्रकार एक दिन बा० गोपालचन्द्र जी के स्वरचित 'कच्छप कथामृत' के एक सोरठे की व्याख्या उन्हीं के सभा के कई