पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/७५

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पूर्वज-गण कवियों में हो रही थी ! भारतेन्दु जी उसी समय वहीं आ बैठे और सब की बातों को सुनते हुए अंत में एकाएक बोल उठे कि 'बाबू जी हम अर्थ बतलाते हैं। आप वा (उस) भगवान का जस वर्णन करना चाहते हैं, जिसको आपने कछुक छुवा है अर्थात् जान लिया है !' इन नई उक्ति को सुनकर पिता तथा सभासदगण चमत्कृत हो उठे और इनकी बहुत प्रशसा करने लगे । सोरठे की प्रथम पक्ति यों है- करन चहत जस चारु कछु कछुवा भगवान को । इसी प्रकार एक बार जब इनके पिता तर्पण कर रहे थे तब इन्होंने प्रश्न किया था कि 'बाबू जी, पानी में पानी डालने से क्या लाभ ?' धार्मिक प्रवर बा० गोपालचन्द्र ने सिर ठोका और कहा कि 'जान पड़ता है तू कुल बोरेगा' । बचपन की साधारण अनुसंधानकारिणी बुद्धि का यह एक साधारण प्रश्न था, जो इनके जीवन में बराबर विकसित होती गई थी। यह धार्मिक तथा सामाजिक सभी प्रश्नों के तथ्य निर्णय में दत्तचित रहते थे। इनके पिता का अभिशाप भी इनमें धार्मिक श्रद्धा की कमी होना बतला रहा है न कि जैसा बा. राधाकृष्ण जी ने लिखा है कि 'देव तुल्य पिता के आशीर्वाद और अभिशाप दोनों ही एक एक अंश में यथासमय फलीभूत हुए अर्थात् हरिश्चन्द्र जैसे कुल- मुखोज्वलकारी हुए वैसे ही निज अटुल पैतृक संपत्ति के नाश- कारी भी हुए।' तपण में विश्वास न रखना धार्मिक अश्रद्धा है । धन से धर्म में बहुत विभिन्नता है, दोनों के मार्ग भिन्न हैं। जो धन ही से धम समझता है उसके लिए दोनों एक हैं भारतेन्दु जी के धर्म तथा समाज के सम्बन्ध में कैसे विचार थे यह अलग लिखा गया है। भारतेन्दु जी का मुंडन संस्कार अल्पावस्था ही में हुआ था और जब यह तीन वर्ष के थे तभी इनको कंठी का मंत्र दिया