पृष्ठ:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र.djvu/८३

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७१ पूर्वज-गण ठंडी ठंढो हवा मन की कली खिलाती हुई बहने लगी। दूर से धानी और काही रङ्ग के पर्वतों पर सुनहरापन आ चला । कहीं आधे पवत बादलों से घिरे हुये, कहीं एक साथ वाष्प निकलने से उनकी चोटियाँ छिपी हुई और कहीं चारों ओर से उन पर जल- धारा पात से बुक्के को होली खेलते हुए बड़े ही सुहावने मालूम पड़ते थे। पास से देखने से भी पहाड़ बहुत ही भले दिखलाई पड़ते थे । काले पत्थरों पर हरी हरी घास और जहाँ तहाँ छोटे- बड़े, पेड़, बीच बीच में मोटे पतले झरने, नदियों की लकीरें, कहीं चारों ओर से सघन हरियाली, कहीं चट्टानों पर ऊँचे नीचे अनगढ़ ढोंके और कहीं जलपूर्ण हरित तराई विचित्र शोभा देती थी। अच्छी तरह प्रकाश होते होते तो वैद्यनाथ के स्टेशन पर पहुँच 9 गए।” चलत आवे। सं० १६३६ वि० में भारतेन्दु जी उदयपुर गए। पत्थर के रोड़े, पहाड़, चुङ्गो, चौकी तथा ठगी को उस समय के मेवाड़ का पंचरत्न बतलाया है। गणेश गाड़ीवान तथा बैलगाड़ी पर पद्यमय व्यंग्योक्ति की है- नहिं विद्या नहिं बाहुबल नहिं खर्चन को दाम । श्री गणेश बिन शुड के तिनको कोटि प्रनाम || हिलत डुलत गाड़ी झुलत सिर. टुटत रीढ़, कमर झोंका खावै ।। टख टख टिख हचर मचर शिष खस धस चे चूँ चूँ टन । टिन टिन हड़ड़ हड़ड़ धड़ धड़ घिड़ावै॥ "चल" 'चल" कहे गाड़ीवान चाबुक हते पोंछ। ऐंठ भारत सम बैल तनिक नहिं धावै॥ "काशी वासी परम प्रसिद्ध बा० श्री हरिश्चन्द्र जी राजपूताने को यात्रा करते करते ता० १८ दिसम्बर को आर्य लोगों की अक्षत राजधानी उदयपुर में पहुँचे और अपने परम प्रिय मित्र पं०