भारतेंदु हरिश्चन्द्र का मैंने लेना स्वीकार किया था।' इस उत्तर पर सदर आला साहब ने टेबुल पर हाथ पटक कर कहा कि 'बाबू साहब आप भूलते हैं, जरा बाहर घूम आइए और समझ बूझ कर जवाब दीजिये ।' बाहर आने पर सभी लोगों ने समझाया और इन्होंने भी सब का उपदेश ध्यान-पूर्वक सुन लिया, पर कुछ उत्तर नहीं दिया । पुनः इजलास पर जाने पर तथा पूछने पर आपने पहिले ही सा उत्तर दिया और सैयद साहब के खेद प्रकाशित करने पर इन्होंने अपनी चित्तवृति उनसे इस प्रकार प्रकट की कि 'मैं अपने धर्म और सत्य को साधारण धन के लिये नहीं बिगाड़ने का। मुझसे इस महाजन ने जबर्दस्ती हुडी नहीं लिखवाई और मैं बच्चा ही था कि समझता न था। जब मैंने अपनी गरज से समझ बूझ कर उसका मूल्य तथा नजराना आदि स्वीकार कर लिया तो क्या मैं अब देने के भय से उस सत्य को भंग कर दूँ? ऐसे ही सत्यप्रतिज्ञ कवि की लेखनी से सत्यहरिश्चन्द्र सा नाटक लिखा जा सकता था। न परिहास-प्रियता यह स्वभावत: विनोदो थे । उर्द शायरों की जिन्दादिली, ( सजीवता ) इनके नस नस में समाई थी। यह गम्भीर मुहर्रमी सूरत वाले नहीं थे और धन तथा घर के लोगों के कारण जो इन्हें कष्ट था वह उनके मुख पर नहीं झलकता था। वे सदा प्रसन्न चित और प्रेम में मग्न रहते थे। बाल्यकाल में दीवालों पर फोस्फोरस से डरावनी मूर्तियों के लिखने का उल्लेख हो चुका है। राय नृसिंहदास जी इनके फूफा थे इन लोगों की नाबालगी में कोठी के प्रबन्धक भी थे। एक दिन यह उनके पास
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