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भारत में अंगरेज़ी राज

१६८२ भारत में अंगरेज़ी राज अंगरेज उन दिनों इस तरह के उपनिवेश को बढ़ने देने के विरुद्ध थे । वारन हेस्टिस की कौन्सिल के सदस्य मॉनसन की राय थी । ? कि अंगरेज भारत में खेती इत्यादि का कार्य न कर सकेंगेऔर यदि करने की चेष्टा करेंगे तो उनका रहन सहन भारतीय प्रजा की अपेक्षा इतना भंहगा होगा कि उसकी वजह से सरकार की आमदनी में बहुत कमी पड़ जायगी। ७ नवम्बर सन् १७६४ को कॉर्नवालिस ने इङलिस्तान के भारत मन्त्री डण्डा को लिखा कि ‘ब्रिटेन के हित के लिए यह बात बड़े महत्व की है कि यूरोपनिवासियों को जहाँ तक हो सके हमारे भारतीय इलाकों में उपनिवेश बनाने और बसने से रोका जाय ।” ४ फरवरी सन् १८०१ को डाइरेक्टरों ने भारत में इस तरह के उपनिवेशौं के विरुद्ध एक प्रस्ताव पास किया। सन् १८१३ में कम्पनी के अनन्य अधिकार को तोड़ कर समस्त इइलिस्तान निवासियों के लिए भारत आने और तिजारत करने का मैदाम खोल दिया गया। इसके बाद दक्खिन और उत्तर के कई के नए पहाड़ी इलाके अंगरेजी राज में मिलाए गए । इसलिए इनें लिस्तान के कुछ लोगों ने कम्पनी के डाइरेक्टरों की राय के ख़िलाफ़ फिर भारत में अपने उपनिवेश बनाने के लिए आन्दोलन शुरू किया । इन लोगों की मुख्य दलील यह थी कि इस तरह के उपनिवेशों की मदद से अंगरेजी राक्ष भारत में अधिक दिनों तक कायम रह सकेगा ।ग्रन्य नीतिज्ञों के अलावा सर फ्रेडरिक शोर भी इस तरह के उपनिवेशों के पक्ष में था । उसकी दलील यह थी