६७२ भारत में अंगरेजी राज चली गई। १९ को स्टोवेन्सन ने असीरगढ़ पर हमला किया और २१ अकबर को असीरगढ़ का किला अंगरेजों के हाथों में आगया। इसके बाद ही दूपों और उसके १५ यूरोपियन साथी अपना काम पूरा करके सौंधिया को छोड़, स्टीवेन्सन की ओर चले पाए। जनरल घेल्सली के पत्रों से सावित है कि बरहानपुर और असीरगढ़ दोनों स्थानों पर सींधिया के इन नमकहराम यूरोपियन नौकरों ने हो अपने सहधर्मियों का काम इतना सरल कर दिया। दक्खिन में अभी तक सोंधिया और भोसले की सेनाएं, जिनमें अधिकतर सवार थे, एक साथ थीं। इस सवार याचार. सेना में अंगरेजों की भेद नीति भी अधिक चलने भोसले की सेनामों न पाई थी। इसलिए वेल्सली अथवा स्टीवेन्सन को अलहदगी किसी को भी इस संयुक्त मराठा सेना का सामना करने का साहस न हो सका । वेल्सली बराबर इस सेना के दाएँ बाएँ चक्कर लगाता रहा, किन्तु लड़ने से बचता रहा । उधर मराठा सेना ने भी न जाने किस निर्वलता या संकोच के कारण वेल्सली की सेना पर स्वयं हमला न किया । वेल्सली ने अपने पत्रों में साफ लिखा है कि यदि संयुक्त मराठा सेना उस समय कहीं अंगरेजी सेना पर हमला कर देती तो अंगरेजी सेना के लिए बचना असम्भव था। अंगरेज़ इस समय चाह रहे थे कि किसी तरह भोसले और सींधिया की सेनाएँ अलग अलग हो जायें। जिस तरह हुआ हो, इसी समय सींधिया और भोसले की सेनाएँ अलग अलग हो गई। वेल्सली ने अब स्टीवेन्सन को सींधिया के पीछे भेजा
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