भारत में अगरेज़ी राज इलरी ओर यह भी कहा जाता है कि स्वयं सींधिया का विश्वास पैरो पर से हट गया था और इसी समय के निकट पैरों की जगह सौंधिया ने एक दूसरा सेनापति नियुक्त करके भेज दिया था। यह भी लिखा है कि पैरों के अधिकांश अंगरेज और फ्रांसोली मातहत अफसर अंगरेजों से मिल गए थे। मार्किस वेल्सली के पत्र में लिखा है :- "मौ० पैरों ने यह भी कहा कि अपने अधीन यूरोपियन अफसरों की विश्वासघातकता और कृतघ्नता से मुझे विश्वास होगया कि अब भंगरेज़ी सेना का मुकाबला करना व्यर्थ है ।"* ये सब बातें केवल सन्देह जनक हैं। किन्तु अलीगढ़ की विजय की शताब्दी के अवसर पर ४ सितम्बर सन् १६०३ को "पायोनियर" के एक लेखक ने लिखा :- "बयान किया जाता है कि पैरों ने एक बहुत बड़ी रकम अपनी बचत से' ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कारबार में लगा रक्खी थी।"+ निस्सन्देह यह 'बचत की रकम' उसे अंगरेजों ही से मिली यो। इसके बाद कोई सन्देह नहीं रह जाता कि कप्तान पैरौं भी कम्पनी का धनक्रीत था। ... . . M Perron also observed that the treachery and ingratitude of his European officers convinced him that further resistance to the British rms was useless " +"Its asserted that he bad 'Savings' toa considerable amount unvested in the funds of the East India Company."-" Proneer", 4th September, 1903.
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