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पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/४८३

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८८७
भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश

भारतीय उद्योग धन्धों का सर्वनाश ८८७ हेनरी गूगर नामक एक अंगरेज़ बङ्गाल के अन्दर कम्पनी के रेशम के व्यापार के इस ढंग को इस प्रकार बयान करता है- "जिन जिलों में रेशम तैयार होती थी उनमें जगह जगह कम्पनी के व्यापारी रेज़िडेण्ट रहते थे । श्राम तौर पर ये रेज़िडेण्ट जितनी ज्यादा रेशम कम्पनी के लिए जमा कर सकते थे उतनी ही ज्यादा उनकी आमदनी होती थीxxx "दोनों ओर से इस प्रकार काररवाई होती थी,-हर फसल ( बन्द ) से पहले दो तरह के लोगों को पेशगी रुपया दिया जाता था; एक काश्तकारों को जो रेशम के कीड़े पालते थे और दूसरे उन कारीगरों को जो रेशम खपेटने का काम करते थे। इन कारीगरों की संख्या बहुत बड़ी थी और आस पास के ग्रामों में अधिकतर इन्हीं की श्राबादी थी। काश्तकारों को पेशगी देकर कच्चा माल निश्चित कर लिया जाता था, कारीगरों को पेशगी देकर उनकी लपेटने की मेहनत के विषय में कम्पनी पहले से निश्चिन्त हो जाती थीxxx "x x x मैं एक इस तरह की घटना बयान करता हूँ कि जिस तरह की घटनाएँ प्रतिदिन हुआ करती थीं। "एक हिन्दोस्तानी काश्तकार अपने उस फसल के पले हुए कीड़े मेरे हाथ बेचना चाहता है और मुझसे कुछ पेशगी ले जाता है। इसी तरह एक गाँव भर के रेशम लपेटने वाले मिल कर मुझसे पेशगी ले जाते हैं (मुझसे मतलब यहाँ पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अतिरिक्त किसी बाहरी सौदागर से है)। इस सौदे के पक्का हो जाने के बाद कम्पनी के रेज़िडेण्ट के दो नौकर उस गाँव में पहुँचते हैं; एक के हाथ में रुपयों की एक थैली, दूसरे के हाथ में एक रजिस्टर-जिसमें रुपया पाने वालों के नाम लिखे