अवष और फर नाबाद थे। किन्तु इस समय सादतप्रती चारों ओर कम्पनी की सेनाओं से घिरा हुआ था। अपने और अपने कुल के चिर मित्रों की ओर से इस अचानक व्यवहार को देख कर नवाब सश्रादतनी एक दिन बातचीत में चिल्ला पड़ा-हकीकत में यही हाल रहा तो बाकी का मुल्क मुझसे छिन जाने में भी ज़्यादा देर न लगेगी।" रेजिडेण्ट स्कॉट ने और गवरनर जनरल के प्राइवेट सेक्टरी और सगे भाई हेनरी घेल्सली ने बड़े ज़ोरों के साथ नवाब को विश्वास दिलाया कि बाकी राज पर श्राप के अनन्य अधिकार में कभी कोई हस्तक्षेप न किया जायगा। सश्रादतअली ने बेज़ार होकर मसनद से बिलकुल दस्तबरदार होने की इच्छा प्रकट की और कहा कि- "मुझे फ़ौरन इजाजत दी जाय कि मैं सफ़र और हज के लिए परदेस को निकल जाऊँ, क्योंकि अब यहाँ की रिाया को मुंह दिखाना मेरे लिए ज़िल्लत है।" किन्तु नवाब सावतअली का यह निश्चय केवल क्षतिक नैराश्य का नतीजा था। अन्त में कोई चारा न अवध की प्राची देख १४ नवम्बर सन् १८०१ को नवाब सभादत- रियासत का नवाब - अली ने गवरनर जनरल वेल्सली के भेजे हुए सन्धिपत्र पर दस्तखत कर दिए । इस नई सन्धि द्वारा नवाव सादतप्रती ने अपनी सल्तनत का प्राधा, किन्तु अधिक उपजाऊ हिस्सा, जिसकी सालाना आमदनी उस समय एक करोड़ ३५ लाख रुपए थी और जिससे आजकल के संयुक्त प्रान्त' की बुनियाद पड़ी, सदा के लिए कम्पनी
पृष्ठ:भारत में अंगरेज़ी राज (दूसरी जिल्द).djvu/९०
दिखावट