तोर राजका अन्त के नवाब को देकर अपनी जान बचाई। इसके बाद सन् १७७३ में नवाब ने तीसरी बार अंगरेजों की मदद से तोर पर चढ़ाई की और खूब लूट मार मचाई । तोर के राजा इस सारे समय में अपना नियत खिराज बराबर करनाटक के मवाब को देते रहते थे, किन्तु हर बार के हमले में इस खिराज की रकम को और अधिक बढ़ा दिया जाता था। वास्तव में नवाब करनाटक के पास अपने अंगरेज़ ऋणदाताओं और कम्पनी के अफसरों की पाए दिन की नाजायज मांगों को पूरा करने का और कोई उपाय ही न था। होते होते सन् १७८७ में अंगरेज़ कम्पनी और तोर के राजा तुलजाजी के बीच पहली बाजाब्ता सन्धि हुई सन्धि और उसका जिसमें कम्पनी और राजा के बीच अब सदा के उबंधन - लिए 'स्थाई मित्रता' ( Perpetual Friend- ship ) कायम हो गई । छ साल के अन्दर राजा तुलजाजी की मृत्यु हो गई । तुलजाजी के कोई पुत्र न था, किन्तु मरने से कुछ दिन पहले वह सार्बोजी को गोद ले चुका था। अंगरेजों को फिर एक बहुत अच्छा मौका हाथ आया। कुछ पण्डितों से व्यवस्था दिला दी गई कि सार्थोजी का गोद लिया जाना शासानुकूल नहीं है। प्रत्येक भारतवासी जानता है कि काशी और नदिया तक के धुरन्धर पण्डितों से इस तरह की व्यवस्थाएँ दिला देना कितना आसान है। साोजी को हटाकर तुलजाजी के एक सौतेले भाई अमरसिंह को कम्पनो की सेना की सहायता से अब जबरदस्ती तओर की गद्दी पर बैठा दिया गया।
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